SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar कुण्डलिनी जागरण ही समाधि यह विचार अपने मन से निकाल देना चाहिए । बल्कि जब परमात्मा चाहेमा केवन तब ही वह इस क्रिया को करायेगा । हमारी अपनी क्षमता के अनुसार किसी को जल्दी और किसी को बहुत वर्षों बाद । क्योंकि शुरू के दिनों में तो हम पांच मिनट भी लगातार अपने स्वाँस की गति पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं क्योंकि यह कार्य हमने पहले तो किया नहीं था इसके कारण हमारे मस्तिष्क की सम्पूर्ण क्षमता शुरू में इतनी सी ही देर में चुक जाती है और इसका पता भी हमें जब चलता है जब घण्टे, आधे घण्टे के बाद हमारी नींद टूटती है या हमारा ध्यान जो स्वास पर लगा था, वहां से हट कर अन्य कहीं पर से जाकर वापिस लौटता है, शुरू में आपको इस साधना में अपने सिर के अगले हिस्से में भारीपन महसूस हो सकता है या अन्य किसी प्रकार की बाधा खड़ी हो सकती है। लेकिन धीरे धीरे व्यक्ति की जैसे जैसे क्षमता बढ़ती चली जाती है वैसे वैसे ही वह इन बाधाओं से मुक्त हो जाता है । प्राणायाम में हम अपने स्वाँस को जबरदस्ती रोककर रखते है । चूकि वह एक स्थूल किया है इसलिए उसमें हमारा ध्यान स्वतः ही लगा रहता है लेकिन यहाँ कोई स्वाँस थोड़े ही रोकना है, यहाँ तो बस अपने मन को रोकना हैं जो कि एक अन्तकिया है इसलिए इसे हमारे आध्यात्म के अन्दर ध्यान के नाम से जाना जाता है। हालांकि बहुत गहरे में हैं यह प्राणायाम ही, क्योंकि स्वाँस को आधार बनाकर किया गया कोई भी कार्य प्राणायाम ही कहलाता है । इसलिये ही स्वामी ओमानन्द तीर्थ ने अपने ग्रन्थ पातंजलि योग प्रदीप में इसे चतुर्थ प्राणायाम की. पाँचवीं विधि जो कि उनके अनुसार 'प्राणायाम की अन्तिम विधि" है का नाम दिया है। रजनीश इसी प्रक्रिया को, ध्यान की क्रिया-'विपस्सना' के नाम से अपने शिष्यों को बता रहे हैं क्योंकि इस क्रिया में जब आता जाता स्वांस ही नहीं रहता तब वह ध्यान ही तो हो जाता है. और जव साधक अपने अभ्यास के द्वारा अपना इतना होश जगा लेता है तब उसके स्वाँस के रुकने के बाद उसके प्राण.इड़ा पिघला में चलते चलते अपने केन्द्र पर ही रूक जाते हैं या अपने. केन्द्र पर उतर आते हैं। जिसके कारण से उसका सारा का सारा शरीर मृतवत् भले ही हो जावे लेकिन वह स्वयं चैतन्य के द्वार पर आ जाता है । यहां यह भी जान लें, इस For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy