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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ योग और साधना उसकी सहनशीलता बढ़ जाती है अब वह दुखों की परवाह नहीं करता। जब उसको दुख ही विचलित नहीं करते तो सुख भी उस पषिक को पथ से नहीं बटका सकते । वह अपने शब्दों पर, अपने आवतों पर, अपने शरीर को किया कलापों पर, अपने मान सम्मान की परवाह किये बिना, अपनी साधना की शक्ति से चित्त की वृत्तियों पर संयम बरतने लगता है। ___ ये तमाम बातें एक ब्रह्म ज्ञानी के लिये खेत में खरपतवार के समान ही तो है और इनसे साधक अपनी क्षमतानुसार छुटकारा पाकर और मग्न होकर प्रभु की लीला का रसास्वादन करता रहता है वह इन्द्रियों में रहते हुये भी इन्द्रियतीत रहता है । जैसे कीचड़ में रहते हुये कमल का फूल । उस कीचड़ से बिना कोई सम्बन्ध बनाये एक दम साफ सुथरा और सुन्दर रहता है। कमल को देखकर तो लगता ही नहीं कि यह प्यारा सा फूल इस कीचड़ में से ही जन्मा है । वह कीचड़ में रहकर भी किसी दूसरे प्रकार की आभा, किसी दूसरी दुनिया के अनोखे आनन्द की खबर देता है । हम जब जब प्रार्थना में उतरते हैं हमारे ऊपर से इन्द्रियों की पकड़ कम होती चली जाती है । प्रार्थना के द्वारा हमें जो प्राप्ति होती है। उसका सबसे बड़ा पहलू ही यह है कि उसके बाद हम इन्द्रियों के गुलाम न रहकर इन्द्रियों को सवारी के रूप में इस्तेमाल करते हैं । क्योंकि उनको व्यर्थता का हमें पता चल जाता है। जब हमें किसी के स्वरूप का पता विजातीय के रूप में चल जाता है तो हम उसे या उसकी साम्राज्ञता को क्यों कर सहन करेंगे? अगर कुछ बचाकर भी रख छोड़ेंगे तो वह भी जानबूझ कर इसलिये कि सिर्फ उनसे जो फायदे लिये जा सकते हैं वे ले लिये जायें क्योंकि प्रत्येक स्थिति के दो पहलू होते हैं एक अच्छा दूसरा बुरा । जब हम अपना होश जागृत कर लेते हैं तब हम उज्वल पृष्ठ का उपयोग करने के लिये ही इन्द्रियों का उपयोग करते हैं। इसी स्थिति को हम इन्द्रियों रूपी घोड़ों को शरीरिक रूप में स्वयं सवार बनकर जोतना कहते हैं। इसमें ध्यान रखें-इन इंद्रियों का संसार इतना विस्तृत या इतना मायावी है कि कई बार आपको लगेगा कि हम इन्हें जोत रहे हैं लेकिन ऐसा भी हो जाता है बाद में हमें पता चलता है कि वास्तव में सही बात हो तो यही रही कि "अप्रत्यक्ष रूप से हम ही जुतते रहे हैं। आप किसी अनजान मुहल्ले से गुजरते हैं तो उस मौहल्ले के कुत्ते आप पर भौंकते हैं। अगर आप उनसे कतरा कर भागना चाहते हैं तो समझ लीजिये आपका For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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