SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ योग और साधना अलग ही प्रकार की अनुभूति हुई, पहली बात तो यह है कि कमरे में केवल दीपक का मद्धिम प्रकाश था । लाइट नहीं जली हुई थी। दूसरे कमरे के किवाड़ जो पीक वाले दरवाजे के खुले होने चाहिये उस दरवाजे को चटकनी पूर्ववतः अन्दर से लगी. हुई थी और बाहर के किवाड़ भी वैसे ही लगे हुये थे। बबुआ कमरे के अन्दर भी मौजूद नहीं था बल्कि बाहर उसकी साँसों के खर्राटों की आवाजों से उसके सोये हवे होने का निश्चित् आभास मुझे मिल रहा था। अगले ही पल प्रश्न उठा क्रि. फिर कमरे में कोन आया ? ठीक उसी समय हल्की सी पारदर्शक सी आकृति-हिली उससे पहले कि मैं लेटी हुई स्थिति से उठकर बैठ जाता वह आकृति दीवाल में समा गयो। इतना सब कुछ मेरी आँखों के सामने इतनी तीव्रता से गुजरा कि मैं अपने मस्तिष्क में किसी विशेष आकृति के स्वरूप को अपनी याददास्त में नहीं रख सका बस यही स्मरण रहा कि कोई झीने पारदर्शक से दूधिया सफेद कपड़े पहने था और वह कमरे के पीछे वाली दीवाल में समा गया। इससे तो मैं स्तब्ध था ही साथ-साथ कमरे के वातावरण में भी एक अजीव सा भारीपन था । अब चूंकि उसको मैंने स्वयं अपनी निगाहों के सामने से हटते देखा था इसलिए बड़ी ही तीव्रता से उस समय दो बातें मेरे मस्तिष्क में आयी पहली यह कि जब मैं सोया हुआ था तब कोई न कोई अशरीरी आत्मा यहाँ मौजूद थी, दूसरी अब जबकि मेरी आँखों के सामने से वह आत्मा स्वयं ही हट गयी है तो अब मुझे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिए तब मैंने उठकर बैठ जाना और अपनी साधना में ही लग जाना श्रेयष्कर समझा। घड़ी की और देखा तो दो बजे का समय था दीपक में घी बढ़ाकर तथा अगरबत्तियाँ जलाकर मैंने अपना कार्यक्रम फिर से शुरू किया । लेकिन मैं अपने ध्यान को राम के नाम पर ज्यादा देर तक केन्द्रित नहीं रख सका क्योंकि मेरे विचार अभी थोड़ी देर पहले देखे गये स्वप्न और इस रहस्यमय उपस्थिति की तरफ बढ़े चले जा रहे थे। ताऊजी जिनके अगाध प्रेम में मैं ओत प्रोत रहा करता था, वे आजीवन अविवाहित ही रहे थे, दूसरी बात उन्होंने मुझे अपना उत्तराधिकारी भी माना था तीसरी बात यह थी कि उनकी जब मृत्यु हुयी तब मैं भरतपुर में था जबकि उनकी बड़ी ही हादिक इच्छा थी कि जब वे मृत्यु को प्राप्त हों तो उन्हें मेरा हाथ लगे। चूंकि मैंने डीग से भरतपुर आकर दुकान खोल ली थी इसलिये जब उनकी मृत्यु हुई For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy