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श्री व्यवहार- *
सूत्रम्
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नवम
उद्देशकः
१४६५ (B)
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एषा तनुः स्नापिताऽपि दुरभिगन्धप्रस्वेदपरिश्राविणी, तथा द्विधा वायुपथः अधोवायुनिर्गम उच्छवास - नि:श्वासनिर्गमश्च तेन कारणेन चैत्ये चैत्यायतने साधवो न तिष्ठन्ति ॥ ३७५४ ॥ अथवा श्रुतस्तवानन्तरं तिस्रः स्तुती: त्रिलोकिकाः लोकत्रयप्रमाणा यावत् कर्षति तावत् तत्र चैत्यायतनेऽवस्थानमनुज्ञातम् कारणेन कारणवशात् परेणाप्यवस्थानमनुज्ञातमिति
॥ ३७५५ ॥
सूत्रम् - सत्त- सत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगूणपन्नाए राईदिएहिं छन्नउएणं भिक्खाणं अहासुतं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ॥ ३७ ॥
अट्ट-अट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राईदिएहिं दोहिं य अट्ठासिएहिं भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ॥ ३८ ॥
नव-नवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राईदिएहिं चउहिं य पंचुत्तरेहिं भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ॥ ३९ ॥
दस-दसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसएणं अद्धछट्ठेहिं य भिक्खासएहिं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ॥ ४० ॥
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सूत्र ३७-९ गाथा
| ३७४९-३७५५
भिक्षुप्रतिमाविधिः
१४६५ (B)