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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
[ 'बुद्धिगत अर्थ ही वाच्य है' इस सिद्धान्त का प्रतिपादन]
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वस्तुतो बौद्ध एवार्थः शक्यः । पदम् अपि स्फोटात्मकं ' प्रसिद्धम् । तयोस्तादात्म्यम् । तत्र बौद्ध वह न्यादावर्थे दाहादिशक्तिमत्त्वाभावात् । श्रत एव शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प: ( योगसूत्र १.६ ) इति विकल्पसूत्रं सङगच्छते । शब्द-ज्ञानमात्रेण 'अनुपाती' बुद्धावनुपतनशीलो 'वस्तुशून्यः' बाह्यार्थरहितः विशेषेरण कल्प्यते इति 'विकल्प' - बुद्धिपरिकल्पित इति तदर्थः ।
वास्तविकता तो यह है कि बुद्धि में विद्यमान अर्थ ही शक्य (वाच्य ) है तथा पद भी स्फोट रूप (बुद्धिगत) ही माना जाता है । (बुद्धि में विद्यमान ) उन दोनों (शब्द तथा अर्थ ) का ' तादात्म्य' होता है। वहां बुद्धिगत वहिन श्रादि पदार्थों में दाह आदि की शक्तिमत्ता का अभाव रहता है । इसीलिये (पदार्थ को बुद्धिगत मानने के कारण ही ) विकल्प (के स्वरूप को बताने वाला यह ) सूत्र सुसङगत होता है कि - "शाब्दज्ञान का अनुसरण करने वाला बाह्यार्थ Re (बुद्धि ज्ञान ) 'विकल्प' है ।" इसका अर्थ है - " शब्दोत्पन्न ज्ञानमात्र के आधार पर उपस्थित होने वाला अर्थात् बुद्धि में उपस्थित होने के स्वभाव वाला, वस्तुशून्य अर्थात् बाह्यार्थ से रहित ( जो ज्ञान है वह ) विशेष रूप से कल्पित होता है - बुद्धि से उसकी परिकल्पना की जाती है, इसलिये उसे 'विकल्प' कहा जाता है" ।
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वाच्य अर्थ तथा वाचक शब्द दोनों ही वक्ता की बुद्धि में पहले से विद्यमान होते तथा उन दोनों में परस्पर 'तादात्म्य' सम्बन्ध होता है । श्रोता भी जब शब्द को सुनता है तथा उससे किसी अर्थ को जानता है तो उसकी बुद्धि में दोनों - शब्द तथा अर्थका 'तादात्म्य' होता है । पदार्थ या वाच्यार्थ वक्ता की बुद्धि में ही रहते हैं, इसलिये वे अपने लौकिक दाहकत्व आदि धर्मों से युक्त नहीं होते। योगदर्शन में जो 'विकल्प' की परिभाषा की गयी है वह तभी सुसंगत हो सकती है यदि इस बात को मान लिया जाय कि पद तथा पदार्थ दोनों बुद्धिगत होते हैं। क्योंकि 'विकल्प' की परिभाषा में यह स्पष्ट कहा गया है कि शब्द -ज्ञान से उत्पन्न होने वाला, पर बाह्यार्थ - ( लौकिक वस्तु-स्वरूप ) से रहित, जो ज्ञान वह 'विकल्प' है । इसलिये योगदर्शन में अभिमत 'विकल्प' की परिभाषा से यह स्पष्ट है कि वाच्यार्थ या शक्यार्थ वस्तुतः बुद्धिगत होता है ।
अभिप्रायको भर्तृहरि ने अपनी निम्न कारिका में अलातचक्र के दृष्टान्त के द्वारा प्रकट किया है :
ह० - 'बौद्ध-स्फोटात्मकम् ।
प्रत्यन्तम् श्रतथाभूते निमित्तं श्रत्युपाश्रयात् ।
दृश्यतेऽलातचक्रादी वस्त्वाकार-निरूपरणा ॥ वाप० १.१३०
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