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शक्ति-निरूपण
अभेद एवं 'वृद्धि' शब्द (संज्ञा) तथा उसके अर्थ आ, ऐ, औ (संज्ञी) का अभेद होने पर ही उपरि निर्दिष्ट प्रयोग सुसङ्गत हो सकते हैं ।
इस प्रकार श्रुतियों, शास्त्रों तथा लौकिक-प्रयोगों के आधार पर शब्द तथा अर्थ में तादात्म्य-सम्बन्ध की स्थिति ही सर्वथा तर्कसंगत है।
['तादात्म्य' सम्बन्ध का स्वरूप]
'तादात्म्यं च तद्-भिन्नत्वे सति तदभेदेन प्रतीयमानत्वम् इति भेदाभेद-समनियतम् । अभेदस्य अध्यस्तत्वाच्च न तयोविरोधः । यत्तु ताकिकाः “शब्दार्थयोस्तादात्म्यस्वीकारे 'मधु'-शब्दोच्चारणे मुखे दाहापत्तिः” इत्याहुः,
तन्न । भेदाभेदस्योपपादितत्वात् । 'तादात्म्य' (का अभिप्राय) है उन (शब्द तथा अर्थ) की भिन्नता होने पर (भी) उनकी अभेदरूप से प्रतीयमानता। इसलिये (वह 'तादात्म्य') भेद तथा अभेद दोनों के साथ समानरूप से तथा नियतरूप से रहता है। नैयायिक जो यह कहते हैं कि "शब्द तथा अर्थ में 'तादात्म्य'-सम्बन्ध मान लेने पर 'मधु' शब्द का उच्चारण करने से मुख में माधुर्य-रस की प्रतीति तथा 'वह्नि' शब्द के उच्चारण करने पर मुख में जलन की प्रतीति होनी चाहिये", वह (कथन) ठीक नहीं है, क्योंकि ('तादात्म्य' सम्बन्ध में) भेद तथा अभेद (दोनों) का (हो) उपपादन किया गया है।
'तादात्म्य' सम्बन्ध की परिभाषा में यहां यह स्पष्ट कहा गया कि 'तादात्म्य' सम्बन्ध वहां होता है जहां भेद होने पर भी अभेद रूप से प्रतीति हो। इसीलिये 'तादात्म्य' को यहां 'भेदाभेद-सम-नियत' कहा गया। यह 'सम-नियत' शब्द नैयायिकों का पारिभाषिक शब्द है। इस की परिभाषा की गयी है-व्याप्यत्वे सति व्यापकत्वम् (न्यायकोश), अर्थात् जो स्वयं ही व्याप्य भी हो तथा व्यापक भी हो । जैसे अभिधेयता तथा पदार्थता में 'समनियत' है। जहां-जहां 'अभिधेयता' (वाच्यता) होगी वहां-वहां पदार्थता भी होगी। इसे यों भी कहा जा सकता है कि जहां-जहां पदार्थता होगी वहां वहां अभिधेयता भी होगी। इस रूप में अभिधेयता व्याप्य भी है तथा व्यापक भी है। इसी प्रकार यहां 'तादात्म्य' भेद तथा अभेद दोनों में समान रूप से रहता है । इसलिये वह भेदाभेद में 'समनियत' है। वस्तुतः 'तादात्म्य' होता ही वहां है जहां भिन्नता होने पर भी अभिन्न रूप से प्रतीति हो। इसलिये जब तक दोनों ही नहीं होंगे तब तक 'तादात्म्य' सम्बन्ध बन ही नहीं सकता। यह 'भेदाभेद-समनियतता' ही नैयायिकों की इस आशङ्का का समाधान कर देती है कि, शब्द तथा अर्थ में 'तादात्म्य' सम्बन्ध होने पर भी, 'मधु' कहने पर मुख में मधुरता तथा 'अग्नि' कहने पर जलन की प्रतीति क्यों नहीं होती। स्पष्ट है कि 'तादात्म्य' में केवल अभेद नहीं माना जाता अपितु भेद में अभेद माना जाता है, इसलिये दोनों के होने के कारण नैयायिकों की शंका निर्मूल है।
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