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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संतीस सूत्रद्वयेन । 'समासग्रहणं च नियमार्थमस्तु। इत्यर्थात् समासस्यापि सा स्यादिति तथा च "तिबन्तभिन्नम्प्रातिपदिकम्" 'समासश्च' इत्यस्य नियमार्थत्वं सुलभमिति इत्यर्थात् समासस्यापि सा स्याद् इति चेत् । चेत् सत्यम् । प्रत्येक वर्णेषु संज्ञावारणाय तथापि प्रत्येक वर्णेषु संज्ञावारणायार्थ- "अर्थवत्" इत्यस्यावश्यकत्वेन समासेवत्त्वावश्यकत्वेन समासाव्याप्तिताद- ऽव्याप्तिस्तदवस्थैव । तथा च प्रातिपदिकवस्थ्यमेव । तथा प्रातिपदिकसंज्ञारूपं संज्ञारूपकार्यमेवार्थवत्त्वमनुमापयति । कार्यम् एवार्थवत्त्वम् अनुमापयति । (घ) वैभूसा० (पृ० ३०५-३०७) पलम० (पृ० ४२५-२६) ___कि च 'राजपुरुषः' इत्यादौ सम्बन्धिनि । किं च 'राजपुरुषः' आदौ राजपदादेः सम्बन्धे वा लक्षणा। नाद्यः 'राज्ञः पुरुषः' सम्बन्धिनि सम्बन्धे वा लक्षणा नाद्यः । इति विवरणविरोधात समाससमानार्थक- 'राज्ञः पुरुषः' इति विवरणविरोधात वाक्यस्यैव विग्रहत्वात् । अन्यथा तस्मात् वृत्तिसमानार्थवाक्यस्यैव विग्रहत्वात् । शक्तिनिर्णयो न स्यात् । नान्त्यः 'राज- अन्यथा तस्मात् शक्तिनिर्णयो न स्यात्। सम्बन्धरूपपुरुषः' इति बोधप्रसङ्गात् ।। नान्त्यः ‘राजसम्बन्ध रूपपुरुषः' इत्यन्वयविरुद्धविभक्तिरहितप्रातिपदिकार्थयोरभेदा- प्रसङ्गात् । न्वयव्युत्पत्तरित्यादि प्रपञ्चितं वैयाकरणभूषणे। वैभूसा० तथा पलम० के इन अनेक स्थलो की इस समान रूपता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि या तो ये अंश प्रक्षिप्त हैं अथवा पलम० ही नागेश से भिन्न किसी विद्वान् के द्वारा प्रणीत अथवा सङ्कलित है। परन्तु यों शीघ्रता में किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना हमें उचित प्रतीत नहीं होता। पलम० का महत्त्व---ऊपर तीनों मञ्जूषा ग्रन्थों के आकार प्रकार तथा प्रतिपाद्य आदि के विषय में विचार किया गया है। सम्प्रति व्याकरण दर्शन का विशिष्ट अध्ययन करने वाले विद्वानों तथा छात्रों में पलम० का ही अत्यधिक प्रचार देखा जाता है। इसका कारण यह है कि ग्रन्थकार ने अपनी इस परम लघ्वी मञ्जूषा में संस्कृतव्याकरण-दर्शन के प्रायः सभी सिद्धान्त-रत्नों को सुचारु रूप से सजा कर रखा है। फलतः इस ग्रन्थ के सम्यक् अध्ययन से संस्कृत-व्याकरण-दर्शन के साथ भली भांति परिचय हो जाता है। बृहन्मञ्जूषा तथा लघुमञ्जूषा तो पाठकों को अथाह समुद्र की भांति प्रतीत होते हैं । उनमें घुसते हुए भी भय लगता है। प्रतिपाद्य विषयों का इतना असंयमित विस्तार है कि आसानी से कुछ पता ही नहीं लग पाता कि ग्रन्थकार कहना क्या चाहता है। पहले लम० तथा पलम० की तुलना के प्रसंग में कई बार यह बात कही गयी है कि पलम० के अनेक स्थल लम० के उन स्थलों की अपेक्षा अधिक सुसंगत तथा स्पष्ट हैं । १. पलम में "विरुद्ध..... वैयाकरणभूषण" इस पूरे वाक्य को सम्भवत: इस लिये नहीं रखा गया कि इस में वैयाकरण भूषण का नाम प्रयुक्त हुआ है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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