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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
विवरण- विरोधात् । वृत्ति समानार्थ- वाक्यस्यैव विग्रह - त्वात् । अन्यथा तस्माच् छक्ति - निर्णयो न स्यात् । नान्त्यः । 'राज-सम्बन्ध-रूप- पुरुषः' इत्यन्वय-प्रसङ्गात् । ननु तर्हि ' वैयाकरणः' इत्यस्य 'व्याकरणम् ग्रधीते' इति, 'पाचक:' इत्यस्य ' पचति' इति च कथं विग्रहः ? वृत्तिसमानार्थत्वाभावाद् इति । ग्रत ग्राह
प्रख्यातं तद्धित-कृतोर्यत् किञ्चद् उपदर्शकम् । गुण- प्रधान-भावादौ तत्र दृष्टो विपर्ययः ।
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( वैभूसा० समासशक्ति निर्णय, कारिका सं० ७ ) ' तद्धित-कृतोर् यत् किञ्चित् ग्रर्थ-बोधकं विवरणम 'प्राख्यातम् ' तिङन्तम् इति यावत् । तत्र विवरणविव्रियमाणयोर् विशेष्य- विशेषरण-: -भाव-विपर्ययो दृष्ट इति । कृदन्त- तद्धितान्तयोर् श्राश्रयप्राधान्यम्, श्राख्याते व्यापारस्य इति बोध्यम् ।
इसके अतिरिक्त 'राज-पुरुष : ' आदि (प्रयोगों) में 'राजन' आदि की ('व्यपेक्षावाद' के सिद्धान्त के अनुसार) 'सम्बन्धी' (अर्थ) में 'लक्षणा' मानी जाय या 'सम्बन्ध' (अर्थ) में प्रथम विकल्प ('सम्बन्धी' अर्थ में 'लक्षरगा' ) इसलिये उचित नहीं है कि उसका 'विवरण' (विग्रह वाक्य ) से विरोध उपस्थित होता है, क्योंकि वृत्ति के समान अर्थ वाला वाक्य ही विग्रह ( माना जाता है । अन्यथा (वृत्ति तथा विग्रह - वाक्य में समानार्थकता के न होने पर) उस (विग्रह वाक्य) से वृत्ति - विशिष्ट प्रयोग की 'शक्ति' का निर्णय नहीं हो सकता । अन्तिम विकल्प ( 'सम्बन्ध' अर्थ में लक्षरगा) इसलिये मान्य नहीं है कि (तब 'राजपुरुष:' इस प्रयोग में ) ( राज - सम्बन्धरूप पुरुष' इस प्रकार का ग्रन्वय होने लगेगा ।
( यदि समान अर्थ वाला वाक्य ही विग्रह - वाक्य हो सकता है) तो फिर ' वैयाकरण:' इस (तद्धित' वृत्ति वाले प्रयोग ) का 'व्याकरणम् ग्रधीते' (व्याकरण पढ़ता है) यह (वाक्य) तथा 'पाचक:' इस ('कृत्' वृत्ति वाले प्रयोग) का 'पचति'
१. प्रकाशित संस्करणों में, 'च' पाठ नहीं हैं ।
२. तुलना करो - वाप० २, ३०८;
आख्यातं तद्धितार्थस्य यत् किञ्चिद् उपदर्शकम् । गुण- प्रधान - भावस्य तत्र दृष्टो विपर्ययः ।
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