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कारक-निरूपण
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आदि का समोपता ही (अभीष्ट) है । (इसो प्रकार) "तत्र च दीयते कार्य भववत्" इस सूत्र के भाष्य में यह कहा गया कि "मास के बीत जाने पर जो दिया जाता है उसका 'औपश्लेषिक' अधिकरण मास है" । कैयट ने जो 'कटे प्रास्ते' इस (प्रयोग) को 'प्रौपश्लेषिक' ('अधिकरण') का उदाहरण कहा है वह उपर्युक्त भाष्य के विरोध के कारण अनुचित है।
इन दोनों (अधिकरणों) से भिन्न 'वैषयिक' अधिकरण है। (इसके उदाहरण हैं) 'कटे आस्ते' (चटाई पर बैठता है) तथा 'जले सन्ति मत्स्याः ' (पानी में मछलियाँ हैं) इत्यादि ।
'अभिव्यापक' (अधिक रण) से भिन्न ('औपश्लेषिक' तथा वैषयिक' (अधिकरण) गौरण अधिकरण है यह जानना चाहिये।
यहाँ 'अधिकरण' के तीन प्रकार माने गये हैं। 'अधिकरण' के इस त्रिविध वर्गीकरण का आधार है “संहितायाम्" (पा० ७.१.७२) सूत्र के भाष्य में पतंजलि का यह कथन - "अधिकरणं नाम त्रिप्रकारम्-व्यापकम्, प्रौपश्लेषिकम्, वैषयिकम् इति” । “तद् अस्मिन् अधिकम् इति दशान्ताड् ड" (पा० ५.२.४५) इस सूत्र के भाष्य में भी इन तीन अधिकरणों का निर्देश मिलता है :-"यद्यपि तावद् व्यापके वैषयिके वा अधिकरणत्वे सम्भवो नास्ति, औपश्लेषिकम् अधिकरणं विज्ञास्यते - एकादशं कार्षापणा उपश्लिष्टा अस्मिन् शते एकादशं शतम्" ।
अभिव्यापक :- अधिकरण के इन तीन प्रकारों में मुख्य अधिकरण व्यापक अथवा 'अभिव्यापक' अधिकरण है। इसकी परिभाषा यह मानी गयी है कि "जहाँ अाधार के प्रत्येक अवयव में प्राधेय की सत्ता व्याप्त हो वह आधार अभिव्यापक' अधिकरण है"। इसी 'अभिव्यापक' आधार को पतंजलि ने न्याय्य आधार माना है। द्र० -- "अधिक रणम् आचार्यः किं न्याय्यं मन्यते ? यत्र कृत्स्न आधारात्मा व्याप्तो भवति । तेन इहैव स्यात् - 'तिलेषु तैलम्', 'दनि सपिः" (महा० १.३.११) तथा “प्राधारम् प्राचार्यः किं न्याय्य मन्यते ? यत्र कृत्स्न आधारात्मा व्याप्तो भवति । तेन इहैव स्यात् --'तिलेषु तैलम्', 'दधिन सपि:' (महा० १.४.४२) । इसी कारण इस प्रसंग के अन्त में स्वयं नागेश ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'अभिव्यापक' प्रधिकरण से भिन्न अन्य जो दो अधिकरण हैं वे गौण हैं :-"अभिव्यापकातिरिक्त गौणम् अधिकरणं बोध्यम्” ।
प्रौपश्लेषिक : – 'उपश्लेष' शब्द का अर्थ नागेश ने यहाँ सामीप्य सम्बन्ध किया है। इस सामीप्य सम्बन्ध की दृष्टि से जो आधार है वह 'औपश्लेषिक' अधिकरण है। "संहितायाम्'' सूत्र के भाष्य में विद्यमान जिस वाक्य की अोर नागेश ने यहाँ संकेत किया है वह है :-"शब्दस्य शब्देन कोऽन्योऽभिसम्बन्धो भवितुम् अर्हति अन्यद् अत उपश्लेषात् ? 'इको या अचि उपश्लिष्टस्य' इति", अर्थात् --- उपर्युक्त अधिकरणों में एक शब्द की दृष्टि से दूसरे शब्द में किस प्रकार की आधारता हो सकती है सिवाय 'औपश्लेषिकता' के । 'अचि' में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है । अत: उसका तात्पर्य केवल यही हो सकता है कि 'अच' प्रत्याहार के वर्षों से 'उपश्लिष्ट', अर्थात उनके समीप, जो 'इक्' प्रत्याहार के वर्ण ।
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