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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारक-निरूपण ३६७ जनक हो। क्रिया के साक्षाद् आधार दो होते हैं-एक उस क्रिया को करने वाला अर्थात् 'कर्ता' तथा दूसरा जिसमें वह क्रिया हो रही हो अर्थात् 'कर्म' । जैसे---- 'देवदत्तः स्थाल्याम् प्रोदनं गृहे पचति' इस प्रयोग में पकाने वाला देवदत्त तथा पकने वाला चावल-ये दोनों ही पकाना क्रिया के साक्षाद् प्राधार हैं। परन्तु इन साक्षाद् आधारों को 'अधिकरण' इसलिये नहीं माना जा सकता कि अष्टाध्यायी में 'अधिकरण' संज्ञा के विधायक "अधारोऽधिकरणम्" आदि सूत्रों के पश्चात् 'कर्ता' तथा ('कर्म' संज्ञा के विधायक सूत्रों को स्थान दिया गया है तथा 'विप्रतिषेध') समान-बल-विरोध में पूर्व की अपेक्षा बाद के सूत्रों को अधिक बलवान् माना गया है। द्र०-"विप्रतिषेधे परम्” (पा० १.४.२) । पाचन क्रिया का करने वाला (जैसे—यहाँ देवदत्त) पकाना रूप 'व्यापार' का आश्रय है तथा जिसमें पाचन क्रिया होती है वह 'कर्म' (जैसे यहाँ चावल) 'फल' का आश्रय है । इस कारण, उनकी 'अधिकरण' संज्ञा न होकर, क्रमश: 'कर्ता' तथा 'कर्म' संज्ञा हो जाती है। इस प्रकार यदि क्रिया के साक्षाद् आधार की दृष्टि से ही "प्राधारोऽधिकरणम्" सूत्र पर विचार किया गया तो वह सूत्र व्यर्थ हो जायगा। इसलिये परम्परया 'पाधार' की दृष्टि से 'कर्तृ-कर्म-द्वारक' यह विशेषण यहाँ परिभाषा में रखना पड़ा। इस रूप में दो तरह के आधारों की 'अधिकरण' संज्ञा होती है एक तो जो 'व्यापार' के ग्राश्रय 'कर्ता' का आधार हो तथा दूसरा जो 'फल' के आश्रय 'कर्म' का आधार हो । जैसे ऊपर के उदाहरण में पकाने रूप 'व्यापार' के आश्रयभूत देवदत्त का अाधार घर तथा पकना रूप 'फल' के प्राश्रय चावल का आधार स्थाली (पतीली)। दूसरे शब्दों में-पकना रूप 'व्यापार' 'कर्ता' देवदत्त में है तथा देवदत्त घर में है इसलिये 'कर्तृ-द्वारा (परम्परया) 'व्यापार' का आधार घर हुआ। इसी प्रकार चावल का पक जाना रूप 'फल' पके चावल में है तथा वह पका चावल स्थाली में है इस तरह 'कर्म' द्वारा 'फल' का आधार स्थाली है। सम्बन्ध की दृष्टि से 'व्यापार', 'समवाय' सम्बन्ध से, कर्ता देवदत्त में है तथा देवदत्त, 'संयोग' सम्बन्ध से, घर में है इसलिये 'स्व-समवायि-संयोग' रूप परम्परा सम्बन्ध से 'व्यापार' का आधार घर हुआ । विक्लित्ति अथवा पकना रूप 'फल' 'समवाय' सम्बन्ध से पके चावल में है और पका चावल 'संयोग' सम्बन्ध से स्थाली में है । इसलिये यहाँ भी उसी 'स्व-समवायि-संयोय' रूप परम्परा सम्बन्ध से विक्लित्ति रूप 'फल' का आधार स्थाली है। इस रूप में परम्परया क्रिया के जनक होने के कारण इन्हें 'अधिकरण' कारक कहा जाता है। इसी बात को भर्तृहरि ने निम्न कारिका में प्रस्तुत किया है : - कर्तृ-कर्म-व्यवहिताम् असाक्षाद् धारयत्क्रियाम् । उपकुर्वत् क्रिया-सिद्धौ शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ।। (वाप० ३.७.१४८) अर्थात् 'कर्ता' तथा 'कर्म' से व्यवहित तथा इसीलिये क्रिया के असाक्षाद् अाधार बन कर क्रिया की सिद्धि में सहायक 'कारक' को शास्त्र में 'अधिकरण' कहा गया है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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