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कारक-निरूपण
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इस का उत्तर यह है कि अधिकांश धातुएँ ऐसी हैं जो 'फल' तथा 'व्यापार' दोनों को ही कहती हैं। इस प्रायिकता या बहुलता के कारण ही धातु को 'फल' तथा 'व्यापार' दोनों का वाचक कहा गया है। उस कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि सभी धातुएँ 'व्यापार' के साथ साथ 'फल' को भी कहती हैं।
['करण' कारक का लक्षण एवं उसकी विवेचना]
'स्वनिष्ठ-व्यापाराव्य वधानेन फल-निष्पादकत्वं' 'करणत्वम् । इदम् एव साधकतमत्वम् ।
क्रियायाः परिनिष्पत्तिर् यद् व्यापाराद् अनन्तरम् । विवक्ष्यते यदा यत्र करणं तत् तदा स्मृतम् ।।
(वाप० ३.७.६०) इति हर्युक्त : । 'क्रियायाः' इत्यस्य फलात्मिकाया इत्यर्थः । 'रामेण बाणेन हतो वाली' इत्यादौ धनुराकर्षणादेर् व्यापारस्य बारण-व्यापारात् पूर्वम् अपि कर्त्तरि सत्त्वात् । "रामाभिन्न-कर्तृ-निष्ठ-व्यापार-प्रयोज्यो यो'बाण-निष्ठो व्यापारस् तज्जन्यं यत् प्राण-वियोगरूपं फलं तदाश्रयो वाली" इति बोधाच्च । 'रामो बारणेन वालिनं हन्ति' इत्यादौ कर्तृप्रत्यये "बारण-व्यापार-जन्यो यो वालिनिष्ठ: प्राग-वियोगस् तदनुकूलो राम-कर्तृ को व्यापारः" इति बोधः, अर्थाद् 'राम-व्यापार-प्रयोज्यो बाण-व्यापारः' इति पार्णिको बोधः। कर्मादि-पञ्च-कारकारणां करणत्ववारणाय व्यापाराव्यवधानेन' इति दिक।
"अपने में स्थित 'व्यापार' का, व्यवधान-रहित रूप से, 'फल' का उत्पादक होना" 'करणता' है। यही (पाणिनि के “साधकतमं करणम्” पा० १.४.४२ सूत्र में) 'साधकतमता' है। क्योंकि भर्तृहरि ने कहा है :
१. ह० तथा वंमि में 'यो' अनुपलब्ध । २. वंमि० में अनुपलब्ध । ३. ह०-- इत्यादौ च। ४. ह० में अनुपलब्ध । ५. नि० तथा काप्रशु०--प्राणि ।
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