SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा स्वर्ग का साधन है तथा उससे किसी प्रबल अनिष्ट की उत्पत्ति नहीं होती - इस प्रकार का बोध होता है - ऐसा नैयायिकों का एक वर्ग मानता है । [ 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि प्रयोगों में नैयायिकों के सिद्धान्त-मत के अनुसार 'प्रभेद'सम्बन्ध से ही श्रन्वय सम्भव ] वस्तुतो नामार्थधात्वर्थयोर् भेदेन साक्षाद् अन्वयस्य श्रव्यु - त्पन्नतया, 'तादृश-यागानुकूल - कृतिमान् स्वर्गकामः' इत्येव बोधः । कृतिसाध्यत्वं च प्रवृत्तिसाध्यत्वम् । अतो न समुद्रतररणादौ प्रवृत्तिः । इष्ट साधनत्वं च इष्ट-निष्ठ - साध्यता -निरूपकत्वम् । ग्रतो न तृप्तस्य भोजने प्रवृत्तिः । बलवद्-प्रनिष्टाननुबन्धित्वं तु स्वजन्य - इष्टोत्पत्तिनान्तरीयक- दुःखाधिक- दुःखाजनकत्वम् । 'नहि सुखं दुःखैर्विना लभ्यते' इति न्यायेन नान्तरीयकं किंचिद् दुःखम् इष्टोत्पत्तौ अवश्यम्भावि । तदतिरिक्त दुःख राहित्यमेव तत्त्वम् । वस्तुतः, नामार्थ तथा धात्वर्थ का भेद सम्बन्ध से साक्षाद् अन्वय माना नहीं जाता इसलिये, "वैसे ('प्रयत्न साध्य', 'इष्ट के साधन' तथा 'प्रबल ग्रनिष्ट के अनुत्पादक') याग के अनुकूल प्रयत्न वाला स्वर्गाभिलाषी" यही बोध ( स्वर्गकामो यजेत' इस वाक्य का) मानना चाहिये। 'कृति - साध्यता' ( का अभिप्राय ) है प्रवृत्ति ( प्रयत्न ) से साध्य होना । इसीलिये ( प्रयत्न - साध्य न होने के कारण) समुद्र-तरण आदि (असम्भव कार्यों) में प्रवृत्ति नहीं होती । 'इष्टसाधनता' ( का अभिप्राय) है इष्ट में विद्यमान जो साध्यता उसका साधन बनना । इसी - लिये (इष्ट का साधन न होने के कारण ) भोजन किये हुए व्यक्ति की (पुनः) भोजन में प्रवृति नहीं होती । 'प्रबल अनिष्ट की अनुत्पादकता' ( का अभिप्राय) है अपने (याग आदि कार्यों) से उत्पन्न होने वाले इष्ट की उत्पत्ति में जो अनिवार्य दुःख उससे अधिक दुःख का उत्पादक न बनना। 'सुख बिना दुःख के प्राप्त नहीं होता' इस न्याय के अनुसार इष्ट की उत्पत्ति में कुछ अनिवार्य दुःख तो अवश्य ही होगा । ( इसलिये) उस (अनिवार्य दुःख) से अतिरिक्त दुःख की रहितता ही 'बलवद्-अनिष्ट प्रननुबन्धिता' है । 'लिङ' के अर्थ के विषय में नैयायिकों का सिद्धान्त यह है कि 'स्वर्गकामो यजेत' इस वाक्य में 'स्वर्गकाम:' इस 'नाम' ( प्रातिपदिक) शब्द के अर्थ तथा 'यजेत' इस 'तिङन्त' पद के अर्थ का भेद सम्बन्ध से अन्वय करने के लिये यह आवश्यक है कि 'पष्ठी' आदि १. ह० में 'निष्ट' पद नहीं है । २. ह० - दुखावधिक मि० -- दुःखेतर | For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy