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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लकारार्थ-निर्णय ३०५ प्रेरक ज्ञान से ही कोई भी व्यक्ति किसी कार्य में प्रवृत्त होता है । दूसरे शब्दों में प्रवृत्तिजनक ज्ञान ही प्रवर्तक ज्ञान है। नैयायिकों के इस प्रवर्तक ज्ञान में तीन तरह के अवान्तर ज्ञान समाविष्ट हैं । पहला यह ज्ञान कि जो कार्य करना है वह 'कर्ता के प्रयत्नों से साध्य है-असाध्य नहीं है । दूसरा यह ज्ञान कि उस कार्य को करने से कर्ता के अभीष्ट की सिद्धि होगी-बह कार्य किसी अभीष्ट प्रयोजन का साधन है। तीसरा यह ज्ञान कि उस कार्य के करने से जिस इष्ट की प्राप्ति होनी है उससे बड़ा कोई अनिष्ट उस कार्य से उत्पन्न नहीं होगा। इन तीनों के ज्ञान से ही व्यक्ति कार्य में, प्रवृत्त होता है। कार्य के साध्य न होने के कारण कोई व्यक्ति सुमेरुपर्वत की चोटी को लाने में प्रवृत्त नहीं होता, भले ही उससे स्वर्ण आदि की प्राप्ति हो । किसी अभीष्ट का साधन न होने के कारण कोई व्यक्ति, नदी की लहरें गिनना जैसे, किसी निष्प्रयोजन कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । इसी प्रकार विषमिश्रित भोजन, जिस तृप्ति रूप अभीष्ट का साधन है उससे अधिक, प्रबल अनिष्ट (मृत्यु) का उत्पादक होगा इसलिये ऐसे भोजन में कोई प्रवृत्त नहीं होता । अतः प्रवृत्ति के इन तीनों हेतुओं की दृष्टि से 'लिङ' में तीन प्रकार की वाचकता-शक्ति की कल्पना नैयायिक करते हैं । कृतिसाध्यता की दृष्टि से प्रथम शक्ति, इष्ट साधनता की दृष्टि से दूसरी शक्ति तथा प्रबल अनिष्ट का निमित्त न बनने की दृष्टि से तीसरी शक्ति की कल्पना की जाती है। यत्त समुविते शक्तिः .. ' इत्येके-कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि कृति-साध्यता' तथा 'बलवद्-अनिष्ट-अननुबन्धिता' इन दोनों से विशिष्ट जो 'इष्टसाधनता' है वही 'विधि' का अर्थ है। इन विद्वानों का यह कहना है कि जिस प्रकार 'फल' तथा 'व्यापार' में धातु की एक 'शक्ति' मानी जाती है उसी प्रकार 'लिङ्' की भी तीनों अर्थों में एक ही 'शक्ति' माननी चाहिये। तीनों ज्ञानों की दृष्टि से तीन शक्तियां मानने पर तीन ही 'शक्यतावच्छेदक' या शक्यार्थ मानने होंगे जिसमें अनावश्यक गौरव होगा। 'कृति-साध्यता' तथा 'बलवद्-अनिष्ट-अननुबन्धिता' से विशिष्ट इष्ट-साधन को 'विधि' अर्थ मानने वाले विद्वानों का खण्डन करते हुए यहाँ यह कहा गया कि यदि तीनों ज्ञानों की दृष्टि से 'लिङ्' की पृथक् पृथक् तीनों शक्तियाँ न मानी गयीं तो इस बात का निश्चय नहीं हो सकेगा कि कौन सा अर्थ प्रधान है तथा कौन सा अर्थ गौण । क्योंकि 'शक्ति' से अतिरिक्त और प्रमाण ही क्या हो सकता है। जगदीश भट्टाचार्य ने अपनी शब्दशक्तिप्रकाशिका ग्रन्थ में इस मत का विस्तार से खण्डन किया है । (द्र०१० ४१२-४१३)। यहां उन्होंने यह भी कहा है कि विशेष्य-विशेषण-भाव के व्यत्यास, अर्थात् क्रमविपर्यय, से इन विशिष्ट शक्तिवादियों को तीन के बदले छः प्रकार की शक्ति माननी होगी जिसमें और भी गौरव होगा। तथा 'श्येनेन अभिचरन् यजेत' इत्यादि वैदिक वाक्यों को अप्रामाणिक मानना होगा क्योंकि वे अनिष्ट हिंसा या पाप के उत्पादक हैं। इसलिये. विशिष्ट 'इष्ट-साधनता' के आधार पर लिङ' की एक 'शक्ति' न मानकर, उपरिनिर्दिष्ट पद्धति से तीनों ज्ञानों की दृष्टि से तीन भिन्न भिन्न शक्तियाँ माननी चाहिये। इस प्रकार भिन्न भिन्न तीन शक्तियां मानने पर 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वाक्यों में-स्वर्गाभिलाषी द्वारा किया जाने वाला याग उसके प्रयत्नों से साध्य है, याग इष्ट-रूप For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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