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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
'सत्ता प्रतियोगिक' मानना, अर्थात् 'सत्ता' है 'प्रतियोगी' ('विशेषण' ) जिसमें ऐसा 'प्रभाव' यह प्रतिपादन करना । उदाहरण के रूप में 'घटो नास्ति' जैसे वाक्यों में घट के प्रभाव की जो प्रतीति होती है उस 'प्रभाव' ज्ञान रूप कार्य में प्रतियोगी' या विशेषरणभूत 'घटकर्तृक सत्ता' कारण है । इस रूप में 'प्रभाव' के ज्ञान से पूर्व घट की 'सत्ता' अनिवार्य है । यहाँ कठिनाई यह है कि 'सत्' या विद्यमान घट आदि का निषेध 'नञ्' के द्वारा असम्भव है क्योंकि 'सत्कार्यवाद' के सिद्धान्त के अनुसार 'सत्' का कभी भी विनाश नहीं होता और 'ग्रसत्' की कभी सत्ता नहीं होती । द्र० ---
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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टान्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥
गीता (२.१६)
इस तरह विद्यमान की निवृत्ति 'नन्' के द्वारा हो नहीं सकती और असत् ( अविद्यमान ) की निवृत्ति, उसके अविद्यमान होने के कारण, स्वतः ही सिद्ध है । श्रतः उसके लिये 'नन्' के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं । इस प्रकार, सत् असत् दोनों ही रूपों में 'नञ्' का प्रयोग न हो सकने के कारण, नञ' के प्रयोग का प्रयोजन ही समाप्त हो जाता है ।
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि बुद्धिगत शब्द ही वाचक होता है, जिसे 'स्फोट' कहा गया है, तथा बुद्धिगत अर्थ ही वाच्य होता है । इस कारण, बुद्धिगत अर्थ के ही शब्द द्वारा वाच्य होने के कारण, भले ही वस्तु बुद्धि में विद्यमान रहा करे और उसका निषेध नव् के द्वारा संभव न हो परन्तु वस्तु की बाह्य सत्ता का निषेध तो नव्' कर ही सकता है क्योंकि बुद्धि में विद्यमान वस्तु भी बाहर न हो ऐसा तो प्राय: ही होता है ।
न च 'घट' - श्रस्ति'- पदाभ्याम् " इति वाच्यम् - अर्थ को बुद्धिगत मानने के विषय में एक यह आशंका प्रस्तुत की गयी है क्यों न ऐसा माना जाय कि 'घटो नास्ति' जैसे वाक्यों में प्रयुक्त 'घट' तथा 'अस्ति' आदि पदों द्वारा घटविषयक जिस सत्ता का ज्ञान हुआ उसी सत्ता का निवारण 'नन्' अपने अर्थ द्वारा किया करता है । इतना मान लेने से ही यदि काम चल जाता है तो अर्थ को बुद्धिगत मानने की परोक्ष कल्पना क्यों की जाय ?
बुद्ध : शब्दावाच्यत्वेन नत्रा तन्निषेधायोगात् :- इस आशंका का समाधान यह है कि 'नव्' का यह स्वभाव है कि वह जिस शब्द के समीप उच्चरित या प्रयुक्त होता है उसके वाच्य अर्थ का निषेध कर दिया कर करता है। यहाँ 'घट' तथा 'अस्ति' के साथ प्रयुक्त 'नञ्' इनके वाच्यार्थ का निषेध तो कर सकता है पर कठिनाई यह है कि 'घट' तथा 'अस्ति' पदों का वाच्यार्थ घट-विषयक सत्ता का ज्ञान नहीं है । इसलिये जब 'ज्ञान' या 'बुद्धि' इन 'घट' तथा 'अस्ति' जैसे शब्दों द्वारा वाच्य नहीं है तो यह कैसे मान लिया जाय कि घटविषयक 'अस्ति बुद्धि' या सत्ता के ज्ञान का निवर्तन 'नव्' के द्वारा होगा । घट-विषयक सत्ता के ज्ञान का 'नन्' के द्वारा निवर्तन तो तब हो सकता है। जब 'घटसत्ताबुद्धि' या 'घट - सत्ता-ज्ञान' के साथ 'नव् ́ का प्रयोग किया जाय अर्थात् यह कहा जाय कि 'घटसत्ताबुद्धिनं' अथवा 'घटसत्ताज्ञानं न' । परन्तु यहां तो केबल 'घटो नास्ति' कहा गया है। भाष्यकार पतंजलि के - 'प्रसज्याय' क्रियागुणौ
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