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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
अनेक प्राचार्य उपर्युक्त कारिका "क्रियया सह यत्र न' के 'क्रिया' पद को 'गुण' पद का भी उपलक्षक मानते हैं। प्राचार्य पतंजलि भी इन्हीं प्राचार्यों में से एक हैं। इन्हें भी 'प्रसज्य प्रतिषेध' वाले 'न' का सम्बन्ध 'क्रिया' तथा 'गुण' दोनों प्रकार के शब्दों से अभिप्रेत है । पतंजलि के "प्रसज्यायं क्रियागुणौ ततः पश्चात् निवृत्ति करोति" इस कथन से यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है। ___'प्रसज्यप्रतिषेध' के उन स्थलों में जहाँ 'न' का सम्बन्ध 'गुण' के साथ होता है उनके उदाहरण के रूप में यहाँ दो तीन उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । पहला है'नास्माकम् एकं प्रियम्' (हमें एक नहीं प्रिय है)। यहाँ 'प्रिय' में 'एकत्व संख्या' का प्रतिषेध किया गया है । अत: 'न' का सम्बन्ध किसी क्रिया' से न होकर 'एकत्व संख्या' से है । 'एकत्व संख्या' के प्रतिषेध से ही यहां, ‘एकत्व' से इतर, द्वित्व आदि ‘संख्या' से युक्त 'प्रिय' की प्रतीति होती है। यह 'एकत्व संख्या' जिसके साथ नन्' का सम्बन्ध किया जाता है वह 'क्रिया, न होकर 'गुण' है ।
'न' सूत्र के भाष्य में पंतजलि ने भी इसी प्रकार का एक उदाहरण दिया है'न न एकं प्रियम्' (हमें एक प्रिय नहीं है)। इस उदाहरण को स्पष्ट करते हुए कैय्यट कहता है-"अत्र एक प्रतिषेधसामर्थ्यदेव संख्यान्तरयुक्तवस्तुप्रतीतिः” ।
___यहां दूसरे तथा तीसरे उदाहरण (न सन्देहः, नोपलब्धि:) में भी सन्देह तथा उपलब्धि या ज्ञान 'गुण' हैं जिनके साथ 'नन्' का सम्बन्ध होता है ।
क्रियोदाहरणम्-क्रिया के भी दो उदाहरण यहां प्रस्तुत किये गये हैं। पहला है पाणिनि का सूत्र "अनचि च" । इस सूत्र के दो अर्थ किये जाते हैं—एक विधिपरक तथा दूसरा निषेधपरक । विधिपरक अर्थ है- "अच्' से अव्यवहित बाद में विद्यमान 'यर' को, 'अच्' के परे न होने पर, विकल्प से द्वित्व होता है" । तथा निषेधपरक अर्थ है"अच्' से अव्यवहित वाद में विद्यमान 'यर्' को 'अच्' के परे होने पर द्वित्व नहीं होता" ।
इस प्रकार "अनचि" सूत्र में पतंजलि तथा काशिकाकार आदि विद्वान् 'पर्यु दास प्रतिषेध' मानते हैं तथा कैय्यट, पदमंजरीकार, हरदत्त इत्यादि 'प्रसज्यप्रतिषेध' मानते हैं । कैय्यट ने (महा० की अपनी उद्योत टीका में) एक त्रुटित पाठ उद्धत किया है जिसका अभिप्राय है कि यदि इस सूत्र में 'पयुदास प्रतिषेध' माना गया तो इस सूत्र का अर्थ होगा “अच्' सदृश ('अज्' भिन्न) वर्ण के परे होने पर द्वित्व होता है । इस रूप में, अच् सदृश वर्णान्तर को निमित्त मानने के कारण 'वाक्क्' इत्यादि अवसान वाले प्रयोगों में द्वित्व करना सम्भव न होगा, क्योंकि यहां 'क्' से परे कोई वर्ण है ही नही । दूसरी
ओर 'प्रसज्यप्रतिषेध' मानने में यह लाभ है कि वहां प्रतिषेध से विधि का अनुमान कर लिया जायगा, अर्थात् 'अच्' से परे होने पर 'यर' के द्वित्व का प्रतिषेध किया जा रहा है, इसलिये 'अच्' से उत्तर 'यर्' को सर्वत्र द्वित्व होगा। १. द्र०-उद्द्योत टीका ८.४.४७ पृ० २२६;
पाठोऽयं लेखकप्रमादान्नष्टः। पर्युदासे हि अच्सदशवर्णान्तरस्य निमित्तत्वेनोपानाद् अवसाने द्विवचनस्याप्रसंगात् । तस्मात् नायं पय दासो 'यदन्यदचः' इति । कि तहि प्रसज्यप्रतिषेधो 'अचि न' इत्ययं पाठः । तत्र प्रसज्यप्रतिषेधे विधिरनुमीयते । अचि उत्तरस्य यरो नूनं द्विवचनं सर्वत्रास्ति यतोऽचि प्रतिषिध्यते । एवं चानमित्तिकं द्विर्वचनम् अवसानेऽपि भवति । हरदत ने भी पदमंजरी (८.४.४७) में इसी प्रकार की बातें कही हैं।
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