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૧૯ર
वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा अर्थात् कर्मत्व सम्बन्ध, से बिना द्वितीया विभक्ति के प्रयोग के ही अन्वय स्वीकार करना होगा --- और यह निश्चित ही एक अवांछनीय स्थिति होगी। तुलना करो-"नामार्थधात्वर्थयोर्भेदेन साक्षाद् अन्वयासम्भवात् निपातार्थधात्वर्थयोरन्वयस्यैव असम्भवात् । अन्यथा 'तण्डुलः पचति' इत्यत्रापि कर्मतया तण्डुलानां धात्वर्थेऽन्वयापत्तेः” (वै भूसा० पृ० ३७३-७४)।
इस प्रकार नामार्थ तथा धात्वर्थ में भेदसम्बन्ध से सीधे अन्वय न होने के कारण 'निपातार्थ, (साक्षात्कार' रूप 'फल') का 'कृ' धातु के अर्थ 'व्यापार' में, अनुकूलत्व रूप भेदसम्बन्ध से, अन्वय नहीं हो सकेगा । और ऐसा न होने पर 'साक्षात्कारानुकूल व्यापार' यह बोध नहीं हो सकेगा।
निपातार्थ .... 'कर्मत्वानुपपत्तश्च-नागेश ने तीसरा हेतु यह दिया कि 'निपातों' को अर्थ का वाचक मानने पर 'साक्षात्क्रियते गुरुः' इत्यादि प्रयोगों में 'गुरुः' इत्यादि के 'कर्मत्व' की सयुक्तिक उपपत्ति नहीं हो पाती। 'निपातार्थ' (साक्षात्काररूप 'फल') की आश्रयता भले ही 'कर्म' ('गुरु') में मिल जाय पर 'कर्मत्व' के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है । यह भी आवश्यक है कि 'फल' भी प्रकृत धातु' का ही अर्थ हो। 'धातु'-वाच्य 'फल' के आश्रय की 'कर्म' संज्ञा "कर्तुरीप्सिततमं' कर्म" (पा० १,४,४६) सूत्र से की गयी है। इसलिये निपातार्थ का धात्वर्थ में अन्तर्भाव माने बिना निपातार्थरूप 'फल' के प्राश्रय 'गुरु' आदि की 'कर्म' संज्ञा नहीं हो सकती। वस्तुतः 'कारकों' का कारकत्व तब तक सिद्ध नहीं होता जब तक वे क्रिया या, दूसरे शब्दों में, धात्वर्थ में अन्वित न हों। इसलिये 'गुरु' इत्यादि की 'कर्मता' की सिद्धि के लिये यह आवश्यक है कि उनका धात्वर्थ में अन्वय हो तथा यह तभी हो सकता है जब 'निपातार्थ' का धात्वर्थ में अन्तर्भाव कर दिया जाय । इस प्रकार इन हेतुओं के आधार पर नागेश ने नैयायिकों के मत"निपात अर्थों के वाचक होते हैं"-का खण्डन कर दिया।
[इस प्रसङ्ग में नयायिकों पर अन्य वैयाकरणों द्वारा किये गये प्राक्षेप]
यदपि केचित् शाब्दिका:-निपातानां वाचकत्वे 'शोभन: समुच्चयः' इतिवत् 'शोभनश्च' इत्यापत्तिः। 'घटस्य समुच्चयः' इतिवत् 'घटस्य च' इत्यापत्तिः । 'घटं पटं च पश्य' इत्यादौ षष्ठ्यापत्तिश्च-इत्याहः ।
और जो कि कुछ (कोण्डभट्ट आदि) व्याकरण के विद्वान् कहते हैं कि 'निपात' को अर्थ का वाचक मानने पर 'शोभनः समुच्चयः' (सुन्दर संकलन) इस प्रयोग के समान 'शोभन: च' यह (प्रयोग) भी साघु मानना पड़ेगा। 'घटस्य समुच्चयः' (घट का संग्रह) इस (प्रयोग) के समान 'घटस्य च' यह
१. वंमि०-पटं घटं च पश्येस्यादौ षष्ठ्यापत्तिश्चेत्याहुः । निस० तथा काप्रशु० में यह अंश नहीं है।
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