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वैयाकरण - सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
नैयायिक जो यह कहते हैं कि - 'उपसर्गों' की द्योतकता तथा उनसे भिन्न 'निपात्तों' की वाचकता माननी चाहिये क्योंकि "साक्षात् प्रत्यक्ष तुल्ययोः " ( ' साक्षात् ' निपात प्रत्यक्ष तथा तुल्य इन दो अर्थों का वाचक है) यह कोश का वाक्य है तथा 'नमः' पद से 'देवाय नमः (देवता के लिये नमस्कार ) इत्यादि (प्रयोगों) में 'नमस्कार' अर्थ की और दान के समय (कहे गये) 'गवे नमः' ( गाय के लिये नमस्कार ) इस (प्रयोग) में 'पूजा' अर्थ की प्रसिद्धि हैं । और 'सकर्मकत्व' (को परिभाषा ) हैहै - " अपने ( धातु के ), अथवा अपने समीप विद्यामान 'निपात' के, दोनों में से किसी एक के, अर्थ रूप 'फल' के अधिकरण से भिन्न अधिकरण वाले 'व्यापार' की वाचकता" । 'कर्मत्व' (की परिभाषा ) है - "अपने (धातु के), अथवा अपने समीपस्थ 'निपात' के, दोनों में से किसी के, अर्थ रूप 'फल' का आश्रय होना ।"
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वह ( नैयायिकों का उपर्युक्त कथन ) उचित नहीं है क्योंकि 'उपसर्गो' तथा 'निपातों' की विषमता में कोई कारण नहीं है। अनुभूयते' इस (प्रयोग) से 'साक्षात् क्रियते' इस प्रयोग की (सर्वथा ) समानता है । प्रातिपदिकार्थ तथा धात्वर्थ में, भेद सम्बन्ध से सीधे अन्वय न होने के कारण, निपातार्थ तथा धात्वर्थ में परस्पर अन्वय ही सम्भव नही होगा तथा निपातार्थ रूप 'फल' का आश्रय होने पर भी, धात्वर्थ में अन्वय के बिना, 'सुख' तथा 'गुरु' आदि की 'कर्मता' नहीं बन सकेगी ।
का वाचक माना गया है। प्रसिद्ध प्रयोगों से यह ज्ञात र्थों को बताते हैं ।
यत्त,
तार्किका 'प्रसिद्धत्वाच्च - नैयायिक 'उपसर्गों' को तो अर्थ का द्योतक मानते हैं परन्तु अन्य 'निपातों' को वे अर्थ का वाचक मानते हैं । 'निपातों' की वाचकता के प्रतिपादन के लिये वे कोशों का प्रमाण देते हैं । कोशों में 'निपातों' को अनेक अर्थों दूसरा प्रमाण वे लोक - प्रसिद्धि को प्रस्तुत करते हैं | लोकहोता है कि 'निपात' अलग अलग अवसरों पर अलग अलग
सकर्मकत्वं च 'फलशालित्वम् - नैयायिकों के इस सिद्धान्त में यह शंका हो सकती है कि यदि निपातों' को अर्थ का वाचक माना जाता है तो 'साक्षात् क्रियते गुरुः' ( गुरु का दर्शन किया जाता है) इत्यादि प्रयोगों में 'कृ' आदि धातुम्रों से 'कर्म' में लकार नहीं आ सकते क्योंकि “लः कर्मणि० " ( पा० ३.४.६६ ) सूत्र के द्वारा 'सकर्मक' धातुओं से ही 'कर्म' में लकारों का विधान किया गया है । 'साक्षात् क्रियते गुरुः' जैसे प्रयोगों में 'कृ' इत्यादि धातुएँ 'सकर्मक' नहीं हैं क्योंकि 'साक्षात्कार' आदि 'फल', धातु का अर्थ न होकर, 'निपात' का अर्थ है, जबकि धात्वर्थरूप 'फल' के अधिकरण से भिन्न श्रधिकरण वाले 'व्यापार' के वाचक धातु को ही 'सकर्मक' कहा गया है – “ सकर्मकत्वं च ( धात्वर्थरूप - ) फल व्यधिकरण- व्यापार-वाचकत्वम्" ( वैभूसा० पृ० १८ ) ।
इसी प्रकार उपर्युक्त - 'अनुभूयते सुखम् ' तथा 'साक्षात् क्रियते गुरुः', - प्रयोगों में 'सुख' तथा 'गुरु' शब्दों की 'कर्म' संज्ञा भी नहीं हो सकती क्योंकि, वे 'अनुभव' तथा 'दर्शन' रूप 'फल' के प्राश्रय तो हैं परन्तु, नैयायिकों के मत के अनुसार, 'अनुभव' तथा 'दर्शन'
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