________________
www.kobatirth.org
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
धात्वर्थ-निर्णय
१५५
तव्यवस्था च - 'कर्मस्थक्रियक' तथा 'कर्तृ स्थक्रियक' धातुओं की व्यवस्था के विषय में नागेश ने यहां भर्तृहरि की कारिका उद्धत की है जिसमें दो मत प्रस्तुत किये गए हैं। पहले मत में सामान्यतया इतना ही माना जाता है कि जहाँ क्रिया से उत्पन्न विशेषता 'कर्म' में दिखाई दे वह 'कर्मस्थक्रियक' धातु है तथा जहाँ क्रिया से उत्पन्न विशेषता 'कर्ता' में दिखाई दे वह 'कर्तृ स्थक्रियक' धातु है । परन्तु इस व्यवस्था को मानने पर अनेक 'कर्मस्थक्रियक' धातुओं को 'कतृ स्थक्रियक' मानना पड़ता है। जैसे'पच्' आदि धातुओं में पाचन क्रिया से उत्पन्न श्रम आदि विशेषतायें 'कर्ता' में दिखाई देती हैं, इसलिये इस प्रकार की धातुओं को 'कर्तृ स्थक्रियक' मानना होगा। इसके अतिरिक्त 'चिन्त' तथा 'दृश्' इत्यादि धातुएँ, जो ‘कर्तृ स्थक्रियक' मानी जाती हैं, इस व्यवस्था को मानने पर 'कर्तृ स्थक्रियक' नहीं बन पाती क्योंकि सोचने या देखने आदि क्रियाओं से 'कर्ता' में कोई विशेषता नहीं दृष्टिगोचर होती । इसलिये कारिका के उत्तरार्ध में 'अन्येषाम्०' के द्वारा एक दूसरी, सिद्धान्तभूत, व्यवस्था को प्रस्तुत किया गया।
सिद्धान्तभूत मत यह है कि शब्दों, अर्थात् धातुओं, से अभिव्यक्त विशेषता के आधार पर ही धातु को 'कर्मस्थक्रियक' या 'कर्तृ स्थक्रियक' मानना चाहिये । जहाँ ऐसी विशेषता की अभिव्यक्ति धातु से हो जो 'कर्ता' तथा 'कर्म' दोनों में साधारण रूप से मिलें वह 'कत स्थभावक' या 'कर्त स्थक्रियक' धात है। जैसे--'घटं पश्यति', 'ग्रामं गच्छति'. तथा 'दुष्टं हसति' इत्यादि प्रयोगों में क्रमशः 'दृश्', 'गम्' तथा 'हस्' धातुओं के द्वारा 'दर्शन', 'संयोग' तथा 'हास' रूप 'फल' की अभिव्यक्ति इस रूप में होती है कि वे 'कर्ता' तथा 'कर्म' दोनों में साधारण रूप से मिलते हैं। 'घड़ा' दर्शन का विषय बनता है, 'ग्राम' संयोग का विषय बनता है तथा 'दुष्ट व्यक्ति' हास का विषय बनता है । इसलिये 'विषयता' सम्बन्ध से ये 'फल' या विशेषतायें 'कर्म' (घड़े, ग्राम तथा दुष्ट व्यक्ति) में हैं तथा 'समवाय' सम्बन्ध से ये 'फल' 'कर्ता, (घड़े को देखने वाले, गाँव जाने वाले तथा दुष्ट व्यक्ति के ऊपर हँसने वाले) में भी हैं। इसलिए ये सभी धातुएँ 'कर्तृ स्थक्रियक' मानी जायँगी। अतः 'कर्तृ स्थक्रियक' होने के कारण -'दृश्यते घटः स्वयमेव' अथवा 'गम्यते ग्रामः स्वयमेव' इत्यादि प्रयोग साधु नहीं माने जाते क्योंकि "कर्मवत् कर्मणातुल्यक्रियः" सूत्र केवल 'कर्मस्थक्रियक' धातुओं के ही कर्ता को 'कर्मवद्भाव' का विधान करता है।
जहां धातु से ऐसे 'फल' की अभिव्यक्ति होती है जो 'कर्ता' में न हो तथा केवल 'कर्म में हो उस धातु को 'कर्मस्थक्रियक' मानना चाहिये । जैसे-'भिद्' आदि धातुओं से अभिव्यक्त होने वाले भेदन या फटना आदि 'फल' केवल 'कर्म' में ही पाये जाते हैं--- कभी भी 'कर्ता' फाड़ने वाले व्यक्ति में नहीं पाये जाते । अतः उन्हें 'कर्मस्थक्रियक' माना जाता है । इस कारण 'भिद्यते घट: स्वयमेव' इत्यादि प्रयोग साधु माने गये हैं।
इस प्रकार इस सिद्धान्त भूत मत के अनुसार 'ज्ञा' धातु को, उसका 'फल' प्रावरणभङ्ग' या 'विषयता' मानने पर, 'कर्मस्थक्रियक' मानना होगा क्योंकि ये दोनों ही 'फल' केवल 'घट' आदि 'कर्म' में ही रहते हैं, कभी भी 'कर्ता' (जानने वाले व्यक्ति) में नहीं रहते । और 'ज्ञा' धातु को 'कर्मस्थक्रियक' मानने पर "कर्मवत् कर्मणा०" सूत्र के अनुसार 'ज्ञायते घट: स्वयमेव' जैसे अनिष्ट प्रयोगों को भी साधु मानना पड़ेगा। अतः
For Private and Personal Use Only