________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१५४
वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
इसलिये भर्तृहरि ने 'अन्येषाम् ० ' यह ( अन्य प्राचार्यों के मत में इत्यादि) कहा । ( यहाँ 'अन्येषाम्', इस कथन में) 'मते' (मत में) यह शेष है ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जहां 'कर्ता' तथा 'कर्म' दोनों में समान रूप से रहने वाला 'फल', शब्द (अर्थात् उस 'धातु') से, कहा जाय वह 'कर्तृस्थभावक' क्रिया है । जैसे— 'पश्यति घटम्' (घड़े को देखता है), 'ग्रामं गच्छति' (गांव जाता है), 'हसति' ( हँसता है) इत्यादि में ( 'दृश्', 'गम्' और 'हस्' धातुएँ) । वहाँ ( इन प्रयोगों में क्रमश:) ज्ञान, (दर्शनरूप 'ज्ञान) के विषय बनने' के सम्बन्ध से ('कर्म' घट में) तथा 'समवाय' सम्बन्ध से ('कर्ता' ज्ञाता में रहने के काररण), उभयनिष्ठ ('कर्म' तथा 'कर्ता' दोनों में रहने वाला) है । ( 'गम्' धातु का अर्थ ) संयोग भी ( गन्ता तथा ग्राम दोनों में होने से ) दोनों ('कर्ता' - जाने वाला - तथा 'कर्म' - ग्राम) में है । इसी प्रकार ('हस्' धातु का अर्थ ) हास भी ( दोनों 'कर्ता' तथा 'कर्म' में ) है ।
'आवरणभङ्ग' तथा 'विषयता' इस प्रकार के ('कर्ता' तथा 'कर्म' दोनों में साधारणरूप से रहने वाले) नहीं हैं (वे तो केवल 'कर्म' में रहने वाले हैं) ।
'कर्मस्थभावक' वह धातु है जहां 'कर्ता' में न रहता हुआ 'फल' (केवल ) 'कर्म' में ( ही ) रहता है । जैसे - ' भिनत्ति ' ( फाड़ता है) इत्यादि में दो टुकड़े होना आदि ( 'फल') कभी भी 'कर्ता' में नहीं पाये जा सकते - यह हेलाराज की व्याख्या है । इस रूप में, 'आवरणभङ्ग' तथा 'विषयता' दोंनों के केवल 'कर्म' में रहने वाला होने के कारण ( उन्हें 'फल' मानते हुए), 'ज्ञा' धातु के 'कर्मस्थक्रियक' होने की अनिष्ट स्थिति उपस्थित होती है ।
यत्तु .....ज्ञानमेव - वेदान्तियों का यह विचार है कि जब हम किसी वस्तु का प्रत्यक्ष करते हैं तो हमारा अन्तःकरण ज्ञानेन्द्रियों द्वारा उस वस्तु के पास पहुँच कर उसके आकार के रूप में परिणत हो जाता है । इसी स्थिति को वृत्ति या ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान से उस अज्ञात वस्तु पर पड़े आवरण ( परदे ) का भङ्ग या विनाश हो जाता है । इस 'प्रावरणभङ्ग' को ही वेदान्ती 'फल' मानते हैं । कौण्डभट्ट भी 'आवरणभङ्ग' को ही 'फल' मानते हैं ( द्र० - वैभूसा० पृ० ६४ ) । दूसरा नैयायिकों का पक्ष यह है कि जो वस्तुएँ ज्ञात होती जाती हैं वे ज्ञान का विषय बनती जाती हैं । इस 'विषयता' ( विषय बनना) को ही कुछ लोग 'फल' मानते हैं ।
परन्तु 'आवरणभङ्ग' या 'विषयता' को 'फल' मानने में यह दोष उपस्थित होता हैं कि 'ज्ञा' धातु 'कर्मस्थक्रियक' बन जाती है क्योंकि ये दोनों ही ( ' आवरणभङ्ग' तथा 'विषयता' -रूप) 'फल' कर्मस्थ हैं ('कर्म' में विद्यमान हैं) तथा 'कर्मस्थफल' वाली क्रियायें 'कर्मस्थक्रियक' मानी जाती हैं। 'ज्ञा' धातु के 'कर्मस्थक्रियक' होने पर " कर्मवत् कर्मरणा तुल्यक्रिय:" सूत्र के अनुसार 'ज्ञायते घटः स्वयमेव' इस असाधु प्रयोग को भी साधु मानना पड़ेगा क्योंकि इस सूत्र में 'कर्मस्थभावक' तथा 'कर्मस्थक्रियक' धातुओं के 'कर्ता' को 'कर्मवत्' बनाया जाता है ।
For Private and Personal Use Only