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धात्वर्थ निर्णय
'सकर्मक' तथा 'अकर्मक' की अपनी परिभाषा देने से पूर्व नागेश यहां कौण्डभट्टसम्मत परिभाषा देते हैं । कौण्डभट्ट के वैय्याकरणभूषणसार में 'सकर्मक' तथा 'मकर्मक' की परिभाषा के लिए भट्टोजी दीक्षित की निम्न कारिका प्रस्तुत की गयी है :
:–
फल पारयोरेकनिष्ठतायाम् प्रकर्मकः । धातुस्तयोर्धर्मिभेदे सकर्मक उदाहृतः ॥
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( धात्वर्थनिर्णय, कारिका सं० १३, पृ० ८ )
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'फल' तथा 'व्यापार' के एक अधिकररण में रहने पर धातु 'अकर्मक' तथा धर्मी, अर्थात् - 'फल' और 'व्यापार' रूप धर्म से युक्त दो श्राश्रय, के भिन्न भिन्न होने पर धातु ' सकर्मक' कही गयी है । इस कारिका के आशय को ही नागेश ने यहाँ अपनी पंक्तियों में निबद्ध किया है । कारिका के 'एकनिष्ठता' पद का अर्थ कौण्डभट्ट ने 'एकमात्रनिष्ठता' किया है, अर्थात् केवल एक अधिकरण या आश्रय में ही दोनों 'फल' तथा 'व्यापार' का रहना या दूसरे शब्दों में भिन्न अधिकरण में 'फल' तथा 'व्यापार' का न रहना । इसी लिये 'गम्' श्रादि धातुत्रों में 'फल' के कर्तृ' निष्ठ होने पर भी उन्हें 'अकर्मक' नहीं माना जाता क्योंकि वहां 'फल' कर्मस्थ भी है । अतः एक अधिकरण में ही 'फल' नहीं है ।
'अस्ति' प्रादौ केदलं सत्तादिरेवार्थ: - 'अस्' आदि धातुओं का अर्थ केवल सत्ता ही है । इस कारण यहां 'फल' अंश की प्रतीति होती ही नहीं । इसलिये इस प्रकार की धातुत्रों को, 'फल' अंश के न होने के कारण, 'अकर्मक' मान लिया जाता है । वस्तुतः इन धातुओं के विषय में भी यह माना गया है कि यहां भी अपनी सत्ता को धारण करने रूप 'फल' के अनुकूल 'व्यापार' की प्रतीति होती है । परन्तु स्वधारणात्मक 'फल' तथा तदनुकूल 'व्यापार' दोनों ही एक अधिकरण 'कर्ता' में ही विद्यमान हैं । इसलिये इन धातुत्रों को सकर्मक' नहीं माना जाता। दूसरे शब्दों में आत्मधारणरूप 'फल' का भूत 'कर्म' 'कर्ता' में ही अन्तर्भूत हो जाता हैं - 'कर्ता' से पृथक् उसकी सत्ता नहीं है । इसलिये श्राश्रय-भिन्नता के न होने के कारण 'अस्' आदि धातुत्रों को 'अकर्मक' ही माना जाता है । 'अस्' आदि धातुओं की इस स्थिति को निम्न कारिका में भर्तृहरि ने स्पष्ट किया है
आत्मानम् श्रात्मना बिभ्रद् श्रस्तीति व्यपदिश्यते । अन्तर्भावाच्च तेनासौ कर्मरणा न सकर्मकः ॥ ( वाप० ३.३.४७ )
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अपनी सत्ता को अपने द्वारा धारण करता हुआ, अर्थात् सत्तानुकूल व्यापारवान् होता हुआ, (व्यक्ति) 'अस्ति' इस प्रयोग के द्वारा कहा जाता है। (परन्तु इस ( सत्ता रूप 'फल' के प्रश्रयभूत) 'कर्म' के द्वारा वह ('अस्' धातु) 'सकर्मक' नहीं होती क्योंकि 'कर्म' ( यहां 'कर्ता' में) अन्तर्भूत हुआ रहता है ।
परन्तु नागेश ने संभवत: 'सत्ता-धारण' को 'फल' न मानते हुए यहां फलांश की अतीत की बात कही है ।