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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
इसी आशंका का उत्तर यहाँ नागेश ने दिया है। सत्ता का अर्थ है आत्म-धारण, इसलिये सत्ता में भी आत्मधारणानुकूल-व्यापार होता ही है । अत: उसमें भी 'निष्पाद्यता' है तथा क्रमिकता इस रूप में है कि जितने समय तक सत्ता रहती है उस आधारभूत समय में क्रमिकता होती है। उस कालगत क्रमिकता का आरोप सत्ता में करके सत्ता को भी क्रमिक मान लिया जाता है। यों तो काल भी अखण्ड एवं क्रमरहित है परन्तु उसे समझने तथा समझाने के लिये - व्यवहारिक बुद्धि के सन्तोष के लिये-उसमें भी वर्ष, मास, पक्ष, सप्ताह, दिन, घण्टा आदि अनेक खण्डों तथा अवयवों की कल्पना की जाती है। समय के इन कल्पित अवयवों के कारण समय को क्रमिक मान कर तथा कमिकता का आरोप सत्ता रूप व्यापार में करके उसे भी क्रमिक मान लिया जाता है। इसी बात को भर्तहरि ने वाक्यपदीय की निम्न कारिका में स्पष्ट किया है -
प्रात्मभूतः क्रमोऽप्यस्या यत्रेदं कालदर्शनम् । पौर्वापर्यादिरूपेण प्रविभक्तमिव स्थितम् ॥
(वाप० ३.१.३७)
इस सत्ता का स्वरूपभूत कम भी तभी (व्यक्त) होता है जब काल-विषयक दर्शन, पौर्वापर्यादिरूप से, (अनेक कल्पित अवयवों या खण्डों में) बँटा हुआ सा माना जाता
['सकर्मक' तथा 'अकर्मक' को परिभाषा]
'सकर्मकत्वम्' च फलव्यधिकरणव्यापारवाचकत्वम् । फल-समानाधिकरणव्यापार-वाचकत्वम् 'अकर्मकत्वम् । क्वचित्त फलांशाभावाद् 'अकर्मकत्वम्' । यथा'अस्ति'प्रादौ केवलं सत्तादिरेवार्थः । फलांशस्य सूक्ष्मदृष्टयाऽप्यप्रतीतेः । 'उत्पन्नस्य सत्त्वस्य स्वरूपधारणरूपां
सत्ताम् प्राचष्टे अस्त्यादिः" इति निरुक्तोक्तेश्च । फल के आश्रय से भिन्न आश्रय वाले व्यापार' का वाचक होना 'सकर्मकत्व' तथा फल के आश्रय से अभिन्न आश्रय में रहने वाले 'व्यापार' का वाचक होना 'अकर्मकत्व' है । कहीं कहीं पर तो 'फल' अंश के सर्वथा अभाव के कारण 'अकर्मकता' मानी जाती है। जैसे 'अस्ति' (है) आदि (क्रियापदों) में केवल सत्ता आदि ही अर्थ हैं क्योंकि (इनमें) 'फल' अंश की प्रतीति सूक्ष्म दृष्टि से भी नहीं हो पाती तथा "उत्पन्न हुए द्रव्य की प्रात्मधारणरूप सत्ता को 'अस्ति' आदि (प्रयोग) कहते हैं" यह निरुक्त (के कर्ता यास्क) का कथन है। १. तुलना करो-निरुक्त (१.२); अस्तीत्युत्पन्नस्य सत्त्वस्य अवधारणम् (नाचम्)।
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