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धात्वर्थ-निर्णय
१३५
[मीमांसकों का उपर्युक्त मत मानने पर 'सकर्मक', 'अकर्मक' सम्बन्धी व्यवस्था की अनुपपत्ति]
किं च सकर्मकाकर्मक-व्यवहारोच्छेदापत्तिः । न च–प्रत्ययार्थ-व्यापार-व्यधिकरण-फल-वाचकत्वं 'सकर्मकत्वम्' तन्मते, ततसमानाधिकरण-फलवाचकत्वम् 'अकर्मकत्वम्' च, प्रत्ययार्थ-व्यापाराश्रयत्वं 'कर्तृत्वम्', 'घटं भावयति' इत्यादौ णिजर्थ-व्यापार-व्यधिकरण-फलाश्रयत्वेन घटादे: 'कर्मत्वम्'-इति वाच्यम् । अभिधानानभिधानव्यवस्थोच्छेदापत्तेः । न च--व्यापारेणाश्रयाक्षेपात् कर्तुरभिधानम्, कर्माख्याते च प्रधानेन फलेन स्वाश्रयाक्षेपात् कर्मणोऽभिधानम्-इति वाच्यम् । 'जातिशक्तिवादे' जात्याक्षिप्तव्यक्तेरिव पाश्रय-प्राधान्यापत्तौ "क्रियाप्रधानम् प्राख्यातम्" इति यास्कवचो-विरोधापत्तेः। किं च फलस्य धातुना, तदाश्रयस्य च आक्षेपेण लाभसम्भवेन "लः कर्मणि."
(पा० ३.४.६६) इत्यस्य वैयर्थ्यापत्तः । इसके अतिरिक्त 'सकर्मक' तथा 'अकर्मक' विषयक व्यवस्था नष्ट हो जाती है। यह नहीं कहना चाहिये कि-उन (मीमांसकों) के मत में प्रत्ययार्थरूप 'व्यापार' के अधिकरण से भिन्न प्रधिकरण वाले 'फल' का वाचक (धातु) 'सकर्मक' है, प्रत्ययार्थ रूप 'व्यापार' के अधिकरण से अभिन्न अधिकरण में रहने वाले 'फल' का वाचक (धातु) 'अकर्मक' है, प्रत्ययार्थ-'व्यापार'-का
आश्रय 'कर्ता' है तथा 'घटं भावयति' इत्यादि में, (रिणच्) प्रत्यय के अर्थ (प्रेरणा) 'व्यापार' के अधिकरण से भिन्न अधिकरण वाले (उत्पत्तिरूप) 'फल' का आश्रय होने से, 'घट' आदि की 'कर्मता' है-क्योंकि (इस प्रकार की व्यवस्था को मानने से) 'कथित' तथा 'अकथित' की (पाणिनि-प्रोक्त सारी) व्यवस्था विनष्ट हो जायगी। और यह भी नहीं कहना चाहिये कि--(उपर्युक्त व्यवस्था के अनुसार भी कर्तृवाच्य में) 'व्यापार' के द्वारा अपने आश्रय ('कर्ता') के प्राक्षिप्त होने से 'कर्ता' का कथन तथा 'कर्म'-वाचक 'पाख्यात' में प्रधानभूत 'फल' के द्वारा अपने आश्रय ('कर्म') के आक्षिप्त होने से 'कर्म' का कथन हो जायेगा-क्योंकि "जाति में शब्द की 'शक्ति' है" इस सिद्धान्त में 'जाति' से पाक्षिप्त 'व्यक्ति (की प्रधानता) के समान (यहाँ भी 'व्यापार' तथा 'फल' के द्वारा पाक्षिप्त) आश्रय ('कर्ता' तथा 'कर्म') की प्रधानता के प्राप्त होने पर १. निरुक्त (११) में "भावप्रधानम् आख्यातम्" पाठ ही मिलता है। निरुक्त के किसी संस्करण या
टीका में 'क्रियाप्रमानम्' पाठ नहीं मिलता है। स्वयं नागेश ने इसी प्रकरण में 'व्यापार' की परिभाषा के प्रसङ्ग में. "भावप्रधानम्" पाठ को ही उद्धृत किया है।
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