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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
रखता है' यह व्यवहार होता है। इस ('प्राकांक्षा' ) को ही 'अभिधान (अर्थ) परिसमाप्ति' कहा जाता है ।
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'आकांक्षा' का आरोप पद में नहीं किया जाता क्योंकि ( पद के ) अर्थज्ञान के उपरान्त ही 'प्राकांक्षा' का उदय होता है । 'पद आकांक्षा युक्त है' इस कथन का तो अर्थ यह है कि ' ( वह पद ) साकांक्ष अर्थ का बोधक है' । इस ( बात) को "समर्थः पदविधिः " सूत्र के भाष्य में (इस रूप में) कहा गया है"कुछ विद्वान् पारस्परिक 'आकांक्षा' को 'सामर्थ्य' मानते हैं । दो शब्दों में पारस्परिक 'आकांक्षा' क्या हो सकती है ? हम यह नहीं कहते कि दो शब्दों में ('ग्राकांक्षा' रहती है) । तो फिर ? दो अर्थों में ('प्राकांक्षा' रहती है ) " ।
इस प्रकार की जिज्ञासा ( 'आकांक्षा') का हेतु है - एक पद के अर्थ में, दूसरे पद के अर्थ के अभाव के कारण, सम्बन्ध का बोध उत्पन्न न कर पाने की स्थिति का ज्ञान । इसलिये उस ( सम्बन्धबोध की प्रजनकता रूप) ज्ञान के विषय में, उस तरह के सम्बन्धबोध की जनकता के न होने पर भी, 'आकांक्षा' यह व्यहार किया जाता है ।
सहकारिकारणानि -- ' सहकारी कारण' वे होते हैं जो प्रमुख कारण से होने वाले कार्य के जनक होते हुए भी प्रमुख कारण से भिन्न हुआ करते हैं। यहां 'शाब्दबोध' में प्रमुख कारण है पद का ज्ञान । पदार्थज्ञान यादि ' सहकारि कारण' हैं । तुलना करो
पदज्ञानं तु करणं द्वारं तत्र पदार्थधीः । शाब्दबोधः फलं तत्र शक्तिधीः सहकारिणी ॥
( न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, शब्दखण्ड, ८१ )
तस्या: स्व-विषयेऽर्थे श्रारोपः - 'प्राकांक्षा' एक प्रकार की इच्छा है । इसलिये वह आत्मा का धर्म है तथा 'समवाय' सम्बन्ध से श्रोता पुरुष में ही रह सकती है, फिर भी उस पुरुषनिष्ठ 'आकांक्षा' का, शब्द के अर्थ में 'आरोप' कर लिया जाता है क्योंकि पद का अर्थ 'आकांक्षा' का विषय होता है - या दूसरे शब्दों में 'आकांक्षा' पदार्थविषयक होती है । यह 'आरोप' इस लिये किया जाता है कि व्यवहार में 'अर्थ' को भी कभी कभी 'साकांक्ष' कह दिया जाता है ।
ईदृश जिज्ञासा व्यवहारः - 'आकांक्षा' की उत्पत्ति तब होती है जब श्रोता किसी एक पद को सुन कर उसके अर्थ को तो जान लेता है, परन्तु उससे सम्बद्ध होने वाले दूसरे पदार्थ के बोधक किसी शब्द को वह नहीं सुनता। ऐसी स्थिति में उसे यह
बोधक नहीं है । इस प्रकार श्रोता
ज्ञान होता है कि यह त शब्द निराकांक्ष अर्थ का को जो यह ज्ञान होता है कि यह शब्द निराकांक्ष अर्थ का बोधक नहीं है उस ज्ञान का विषय वह श्रुत शब्द होता है । इसलिये उस शब्द या पद को ही साकांक्ष कहा जाता है । यद्यपि वह शब्द अन्वय-बोध का जनक नहीं होता । जैसे- 'गां नय' इस वाक्य में यदि केवल 'गाम्' इस एक पद का ही उच्चारण किया जाय तो उससे गो व्यक्ति का बोध हो जाने पर भी, 'नय' पद के अनुच्चरित रहने से उस पद के अर्थज्ञान
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