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बयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
सभी (विविध) 'शक्तियों' की आत्मा एक ('जाति') ही हो सकती है यह निश्चित है । भावों (पृथक् पृथक् शक्तियों अथवा 'व्यक्तियों' की भिन्नता) के कारण प्रात्मा ('जाति') के स्वरूप भेद की कल्पना अनर्थक (असत्य) है।
सत्यासत्यौ तु यौ भावी प्रतिभावं व्यवस्थितौ । सत्यं यत्तत्र सा जातिरसत्या व्यक्तयः स्मृताः ॥ (वाप० ३.१.३२)
प्रत्येक पदार्थ में जो सत्य तथा असत्य भाव विद्यमान हैं उनमें जो सत्य अंश है . वह 'जाति' है और जो असत्य अंश है वह 'व्यक्ति' है ।
इस प्रकार एकमात्र 'जाति' के ही सत्य होने के कारण उसे ही वास्तविक 'स्फोट' भी मानना चाहिये । अत: ऊपर परमलघुमंजूषा के प्रारम्भ में जो पाठ प्रकार के 'स्फोटों' का उल्लेख हुआ है (द्र० पृ० २-१३) उनमें 'वाक्य-स्फोट,', अथवा और स्पष्ट शब्दों में, 'वाक्य-व्यक्ति-स्फोट' को वृत्तियों का आश्रय न मान कर, 'वाक्य-जातिस्फोट' को ही 'अभिधा', 'लक्षणा', 'व्यंजना' आदि वृत्तियों का आश्रय मानना चाहिये।
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