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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा स्फोटस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिर् इष्यते ।।
(वाप० १.७६ की स्वोपज्ञ टीका में उद्धृत) शब्दस्योर्ध्वम् अभिव्यक्तेर् वृत्ति-भेदे तु वैकृताः । ध्वनयः समुपोहन्ते स्फोटात्मा तैर्न मिद्यते ॥
(वाप०, १.७८) शब्दस्य अभिव्यक्तेरूवं वैकृता ध्वनयः, 'जायन्ते' इति शेषः । 'वृत्तिभेद' इतिअभ्यासार्थे तु ता वृत्तिर्मध्या वै चिन्तने स्मृता।
शिष्याणाम् उपदेशार्थ वृत्तिरिष्टा विलम्बिता ॥ इति तिसृषु वृत्तिषु 'समुपोहन्ते'-कारणनि भवन्ति । स्फोटस्तु तैर्न भिद्यते इति तदर्थः ।
ध्वनि दो प्रकार की होती है-'प्राकृत' तथा 'वैकृत' । 'प्रकृति' (अर्थात्) अर्थ-ज्ञापन की इच्छा, अथवा स्वभाव, से उत्पन्न तथा स्फोट की अभिव्यक्ति कराने वाली (ध्वनि) प्रथम अथवा 'प्राकृत' है। उस 'प्राकृत' (ध्वनि) से उत्पन्न, (तथा) विकारों से युक्त एवं चिरकाल तक रहने वाली (ध्वनि) 'वैकृत' है । भर्तृहरि भी कहते हैं
'स्फोट' की अभिव्यक्ति में 'प्राकृत' ध्वनि हेतु है तथा, 'स्फोट' की अभिव्यक्ति के उपरान्त, (द्रुत आदि) वृत्तियों की भिन्नता में 'वैकृत' (ध्वनियाँ) हेतु हैं । उनके कारण स्फोट के स्वरूप में कोई भिन्नता नहीं पाती।
(भर्तृहरि की कारिका में) 'शब्द' की अभिव्यक्ति के उपरान्त 'वैकत' ध्वनियां उत्पन्न होती हैं' यह (कथन) शेष है।' वृत्तिभेदे' (वृत्तियों की भिन्नता इस प्रकार है)
"अभ्यास के लिये द्रुता वृत्ति तथा चिन्तन के समय मध्या (वृत्ति) कही गयी है । शिष्यों के उपदेश के लिये विलम्बित वृत्ति अभीष्ट है।" १. तुलना करो-बाक्यपदीय स्वोपज्ञटीका १.७६, -
एवं हि संग्रह कार. पठतिशब्दस्य ग्रहणे हेतुः प्राकतो ध्वनिरिष्यते । स्थिति-भेदे निमित्तत्वं वैकृतः प्रतिपद्यते ॥ तुलना करो-महा० उद्द्योत टीका १.१.६८ में उद्ध त ; अभ्यासार्थे दुता वृत्तिः प्रयोगार्थे तु मध्यमा। तथा याज्ञवल्क्यस्मृति (५२) में उद्धत,अभ्यासार्थे द्र तां वत्ति प्रयोगार्थे तु मध्यमाम् । शिष्याणाम् उपदेशार्थी कुर्थाद वृत्ति विलम्बिताम् ॥ लघुमंजुषा (१० २००) के इस प्रसंग में ऊपर का 'अभ्यासार्थे द्र ता." श्लोक उद्धत नहीं है।
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