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स्फोट-निरूपण
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समस्त, पद के हैं। 'राजन्' तथा 'पुरुष' या 'चित्र' तथा 'गो' का समास में अलग अलग अर्थ नहीं है। द्र०
ब्राह्मणार्थों यथा नास्ति कश्चित् ब्राह्मणकम्बले । देवदत्तादयो वाक्ये तथैव स्युरनर्थकाः ।। (वाप० २. १८)
परन्तु नैयायिक विद्वान् ऐसा नहीं मानते । वे समास में शक्ति न मान कर अलगअलग पदो का अलग अलग अर्थ करते हैं तथा, 'लक्षणा' वत्ति के आधार पर, अवयव भूत पदों से ही, समास से प्रगट होने वाले अर्थ का प्रकाशन मानते हैं। यहाँ 'न्यायनये' कह कर नागेश ने नैयायिकों के इसी सिद्धान्त की ओर संकेत किया है । समास में 'शक्ति' न मानने के कारण इन्हें 'व्यपेक्षावादी' कहा जाता है।
कुछ नैयायिक विद्वान् 'चित्रगुः' पद में 'गो' पद की 'गोस्वामी' अर्थ में लक्षणा' करते हैं तथा 'गो' में 'चित्र' का अभेद-सम्बन्ध से अन्वय करते हैं । परन्तु दूसरे नैयायिक 'गो' पद की 'गोस्वामी' में लक्षणा नहीं करना चाहते क्योंकि "पदार्थ का पदार्थ के साथ ही अन्वय हो सकता है, पदार्थ के एक देश के साथ नहीं"-यह एक न्याय है । यहां 'गो' पद के अर्थ 'गो-स्वामी' का 'गो' रूप अर्थ 'पदार्थैकदेश' है, इसलिये उस में 'चित्र' के पदार्थ का अन्वय नहीं हो सकता। इस कारण ये दूसरे नैयायिक 'गो' पद की 'चित्र-गो-स्वामी' अर्थ में 'लक्षणा' करते हैं तथा 'चित्र' पद को 'गो' पद के इस विशिष्ट अर्थ का द्योतक मानते हैं।
____ तो जिस प्रकार ये नैयायिक 'चित्रगुः' शब्द में 'गो' पद को ही 'चित्र-गो-स्वामी' इस पूरे अर्थ का, 'लक्षणा' वृत्ति से, बोधक मानते हैं तथा 'चित्र' पद को 'गो' पद के उस विशिष्ट तात्पर्य का द्योतकमात्र मानते हैं, उसी प्रकार 'पदस्फोट' तथा 'वाक्यस्फोट' की सखण्डता के पक्ष में पदों तथा वाक्यों में अन्तिम वर्ण से 'स्फोट' की अभिव्यक्ति माननी चाहिये । अन्तिम वर्ण से अभिव्यक्त होने वाला यह 'स्फोट' एक है, पद या वाक्य के पहले पहले के वर्ण तो केवल उस तात्पर्य के द्योतकमात्र हैं।
[दो प्रकार की ध्वनियां]
ध्वनिस्तु द्विविधः प्रकृतो वैकृतश्च । प्रकृत्या' अर्थबोधनेच्छया स्वभावेन वा जातः स्फोट-व्यंजक; प्रथमः प्राकृतः । तस्मात् प्रकृताज जातो विकृति-विशिष्टश चिर-स्थायी निवर्तको वैकृतिकः । हरिर् अप्याह
१. मि०-प्रकृतार्थ । २. ह० में 'प्राकृत:' पद अनुपलब्ध ।
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