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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा (वक्ता की दृष्टि से) 'मध्यमा' तथा 'वैखरी' (वारिणयों) से एक साथ नाद उत्पन्न होता है। उनमें 'मध्यमा' नाद अर्थ के वाचक 'स्फोट' रूप शब्द का अभिव्यंजक है। 'वैखरी' (से उत्पन्न) नाद रूप ध्वनि सभी व्यक्तियों के श्रोत्रमात्र से ग्राह्य है तथा भेरी आदि के नाद के समान निरर्थक है, और 'मध्यमा' नाद ('वैखरी' नाद की अपेक्षा) अधिक सूक्ष्म है। कानों को बन्द करने पर और जप आदि के समय अत्यन्त सूक्ष्म वायु से यह व्यक्त होता है तथा शब्द-ब्रह्म रूप 'स्फोट' का व्यंजक है । इस प्रकार के 'मध्यमा' नाद से व्यक्त होने वाला स्फोटात्मक शब्द ब्रह्मरूप है तथा नित्य है। उसके विषय में भर्तृहरि ने कहा है
"जिससे जगत् का क्रिया-कलाप, अर्थ (बाह्यार्थ एवं बौद्धार्थ) रूप में विवितत होता है, तथा जो अनादि, अनन्त, अक्षर-रूप एवं शब्द-तत्वात्मक ब्रह्म है”।
___ऊपर की कारिका तथा उसके बाद के गद्यांश में 'मध्यमा' वाणी के द्वारा उत्पन्न नाद तथा 'वैखरी' वाणी के द्वारा उत्पन्न नाद के अन्तर को स्पष्ट किया गया है। यहां यह कहा गया है कि 'मध्यमा' वाणी से उत्पन्न नाद अर्थ-बोधक 'शब्द' की, जिसका दूसरा नाम 'स्फोट' है, अभिव्यंजना कराता है। वैखरी नाद स्थूल होता है इसलिये उसको सभी सुन सकते हैं । परन्तु वैखरी नाद के प्रकट होने से पूर्व ही, वक्ता की दृष्टि से, मध्यमा नाद के द्वारा अर्थ के वाचक स्फोट का अभिव्यंजन हो जाने के कारण वैखरी नाद, भेरी आदि के नाद के समान, निरर्थक होता है। दूसरी ओर मध्यमा नाद अत्यन्त सूक्ष्म होता है, अतः उसे दूसरा कोई भी नहीं सुन सकता । इस मध्यमा नाद का, कानों को बन्द कर देने पर अथवा मानस जप आदि के समय, अत्यधिक सूक्ष्म वायु के द्वारा कथंचित् अनुभव हो पाता है। इस प्रकार सूक्ष्म वायु के द्वारा अभिव्यक्त यह मध्यमा नाद शब्दब्रह्म अथवा उसके दूसरे पर्याय 'स्फोट' का अभिव्यंजक होता है । इस मध्यानाद की स्थिति में ही वक्ता को वाचक शब्द तथा वाच्य अर्थ की पृथक पृथक् रूप से स्पष्ट प्रतीति होती है। सम्भवतः यही मध्यमानाद द्वारा 'स्फोट' की अभिव्यक्ति का यहां तात्पर्य है ।
इस प्रसंग को आगे इसी प्रकरण के अन्त में कहे गये “अत्रेदं बोध्यम् । ततोऽर्थवोधः” इत्यादि पंक्तियों की पृष्ठभूमि में समझना होगा । वक्ता की दृष्टि से पहले मध्यमा नाद उपस्थित होगा तथा उसी स्थिति में वक्ता को 'स्फोट' की प्रतीति हो जायेगी। इसके बाद वैखरी ध्वनि के द्वारा वह उस मध्यमानाद को और स्पष्ट करेगा । इसी कारण वैखरी नाद को मध्यमानाद का उत्साहक (अभिवर्धक) कहा गया, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार फूत्कार आदि अग्नि के उत्साहक हैं। परन्तु वक्ता मध्यमानाद के लगभग साथ ही वैखरी नाद का प्रकाशन करता है इसलिए एक साथ ही दोनों नादों की उत्पत्ति की बात कही गयी।
ऊपर 'मध्यमा' वाक् के वर्णन के प्रसंग में उसे 'शब्द स्फोट-रूपा' कहा गया है, अर्थात् वह 'मध्यमा' वाक् ही 'स्फोट' है । यहाँ, 'मध्यमा' वाणी से उत्पन्न मध्यमा नाद को स्फोट का अभिव्यंजक कहा गया है । यहां यह विचारणीय है कि प्राकृत ध्वनि
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