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स्फोट-निरूपण वखरी-'विखर' अर्थात् मुख में होने के कारण वाणी के इस रूप को 'वैखरी' कहा गया है। इस स्थिति में वाणी दूसरों के द्वारा सुनी जा सकती है। 'वैखरी' की अवस्था में आकर वाणी अनन्त भेदों वाली हो जाती है। इन भेदों का निर्देश करते हुए भर्तृहरि ने स्वोपज्ञ टीका में लिखा है-"श्लिष्टा व्यक्तवर्ण-समुच्चारणा प्रसिद्धसाधुभावा भ्रष्टसंस्कारा च। तथा या प्रक्षे, या दुन्दुभौ, या वेणौ, या वीणायाम् इत्यपरिमाणभेदा" अर्थात अव्यक्त वर्ण वाली, व्यक्त वर्ण वाली, साधु शब्दों वाली, अपभ्रंश शब्द वाली इत्यादि अनेक भेद सार्थक शब्दों की दृष्टि से तो हैं ही साथ ही शकटाक्ष के परिवर्तन में, दुन्दुभि के प्राघोष में, बांस के फटने में, तथा वीणा के वादन में वाणी के जो विभिन्न प्रकार होते हैं वे सब ही वैखरी के प्रकार हैं (द्र० स्वोपज्ञ टीका, प० १२६) । वस्तुतः मुख से व्यक्त होने वाली वैखरी' के समान जो भी ध्वनियां दूसरों के सुनने योग्य हैं उन सबको संभवतः भर्तृहरि ने 'वैखरी' के अन्तर्गत मान लिया है।
वैखरी कण्ठदेशगा-यहाँ 'कण्ठ' शब्द को उपलक्षण मानना चाहिये क्योंकि 'वैखरी' की स्थिति में 'कण्ठ' के साथ साथ मुख के अन्य तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि स्थानों में भी वाणी की अभिव्यक्ति होती ही है।
['मध्यमा' तथा 'वैखरी' नाद का अन्तर]
वैखर्या हि कृतो नाद: पर-श्रवण-गोचरः । मध्यमया कृतो नादः स्फोट-व्यंजक इष्यते ।। युगपदेव मध्यमा-वैखरीभ्यां नाद उत्पद्यते । तत्र मध्यमानादो अर्थ-वाचक-स्फोटात्मक-शब्द-व्यंजकः । वैखरी-नादो ध्वनिः सकल-जन-श्रोत्रमात्र-ग्राह यो भेर्यादिवन्निरर्थकः । मध्यमा-नादश्च सूक्ष्मतरः कर्णपिधाने जपादौ च सूक्ष्मतरवायु-व्यंग्य: शब्द ब्रह्म-रूप-स्फोटव्यंजकश्च । तादृश-मध्यमा-नाद-व्यंग्यः' . शब्दः स्फोटात्मको ब्रह्मरूपो नित्यश्च । तद् आह हरि:"अनादि-निधनं ब्रह्म शब्द-तत्त्वां यद् अक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। (वाप० १.१) 'वैखरी' वाणी के द्वारा उत्पन्न नाद दूसरे के श्रोत्र का विषय बनता है तथा 'मध्यमा' वाणी से उत्पन्न नाद 'स्फोट' का व्यंजक कहा जाता है। १. ह.-परश्र तिमात्रगोचरः ।
२. बंमि०-वाचकः । ३. ह.-नादव्यंग्य-1
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