SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षणा-निरूपण "लक्षण च न पदमा । यथा 'गभीरायां नद्यां योषः' इत्यत्र ‘गभीरायां नद्याम्' इतिपदद्वय-समुदायस्य तीरे लक्षणा" (वेदान्तपरिभाषा, आगम परिच्छेद)। [प्राचीन नैयायिकों की दृष्टि से एक चौथी प्रकार को लक्षणा-'लक्षित -लक्षणा'] 'द्विरेफ'-पदस्य स्वलक्ष्य-भ्रमरशब्द-वाच्यार्थे लक्षणायां 'लक्षित-लक्षणा' इति व्यवहारः । स्वबोध्य-पदवाच्यत्वं सम्बन्धः । 'द्विरेफ' शब्द की अपने लक्ष्य-भूत 'भ्रमर' शब्द के वाच्य (भौंरा) अर्थ में होने वाली 'लक्षणा' के लिये 'लक्षित-लक्षणा' यह व्यवहार होता है। (यहां) अपने बोध्य (लक्ष्य) पद का वाच्य होना (यह) सम्बन्ध है। कुछ प्राचीन नैयायिक विद्वान् 'लक्षित-लक्षणा' नाम की एक अन्य वृत्ति मानते हैं जिसके उदाहरण के रूप में वे 'द्विरेफ़' शब्द को प्रस्तुत करते हैं । यहां द्विरेफ' पद की पहले, दो 'र' वर्ण वाले, 'भ्रमर' शब्द में लक्षणा, फिर भ्रमर' शब्द की भ्रमर रूप अर्थ (भौंरा) में लक्षणा मानी जाती है। इस तरह 'लक्षिते लक्षितस्य वा लक्षणा लक्षित-लक्षणा' इस व्युत्पत्ति के अनुसार लक्षित में अथवा लक्षित की लक्षणा होने के कारण इस प्रकार को 'लक्षित-लक्षणा' कहा जाता है। नागेशभट्ट ने यहाँ इन्हीं नैयायिकों के मत को प्रस्तुत करते हुए उपयुक्त पक्तियां कहीं हैं। इसका आशय है --अपने लक्ष्यभूत 'भ्रमर' शब्द के वाच्यार्थ भौंरा या मधुप में जब 'द्विरेफ' पद की लक्षणा की जाती है तब उस लक्षणा के लिये 'लक्षित-लक्षणा' नाम का व्यवहार होता है। नव्य नैयायिक इस 'लक्षित-लक्षणा' को अलग वृत्ति न मान कर इसका अन्तर्भाव 'जहल्लक्षणा' में ही कर लेते हैं। द्र०-"अत्र द्विरेफादिपदे रेफद्वय-सम्बन्धो भ्रमरपदे ज्ञायते । भ्रमरपदस्य च सम्बन्धो भ्रमरे ज्ञायते, इति तत्र 'लक्षित-लक्षणा' 'जहल्लक्षणा' एव इति नव्य-नैयायिकाः" (न्याय सिद्धान्तमुक्तावली, खण्ड ४) । नैयायिकों के इस 'लक्षित-लक्षणा' प्रकार का नागेश ने लघुमंजूषा के इसी प्रकरण में (पृ० १४६-१५१) विस्तार से खण्डन किया है। इनके कहने का आशय यह है कि 'द्विरेफ' जैसे प्रयोगों में लक्षणा मानने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि वहाँ तो 'रूढि शक्ति' से ही 'भ्रमर' आदि अर्थों का ज्ञान होता है। 'दो हैं रेफ जिसमें' इस प्रकार के अवयवार्थ की प्रतीति वहां उसी प्रकार नहीं होती जिस प्रकार विशिष्ट 'साम' के वाचक 'रथन्तर' आदि अन्य 'रूढ़ि' शब्दों में । अथवा इस प्रकार के प्रयोगों में 'योगरूढ़ि' मान कर भी काम चल सकता है । 'भ्रमर' पद में विद्यमान दो रेफों का भ्रमर रूप अर्थ में आरोप करके 'द्विरेफ' का अर्थ भ्रमर कर दिया गया। इसीलिये कोशों में 'भ्रमर' पद के पर्याय के रूप में 'द्विरेफ' शब्द का भी पाठ मिलता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy