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लक्षणा-निरूपण
यहाँ यह विचार किया गया है कि 'लक्षणा' का मूल क्या माना जाय, अर्थात् किस परिस्थिति में 'लक्षणावृत्ति' उपस्थित होती है ? इस विषय में दो पक्ष दिखाई देते हैं। पहले में यह माना जाता है कि यदि वाक्य के पदों का, अर्थ की दृष्टि से, परस्पर संगति न लग सके-अन्वय की उपपत्ति न हो सके, अथवा शब्दों से वक्ता के तात्पर्य का प्रकाशन न हो सके, ऐसी स्थिति में 'लक्षणा वृत्ति की उपस्थिति मानी जाती है। इसी बात को "अन्वयाद्यनुपपत्तिप्रतिसन्धानम् एव च लक्षणाबीजम्" इन शब्दों द्वारा यहाँ कहा गया है।
वस्तुतस्तु ....' गौरवाच्च-परन्तु इस पक्ष में दोष यह है कि कुछ ऐसे प्रयोग हैं जिनमें अन्वयानुपपत्ति की स्थिति, वक्ता के तात्पर्य से भिन्न किसी अर्थ को मान लेने पर भी, दूर हो जाती है। जैसे 'गङ्गायां घोषः' 'लक्षणा' के इस प्रसिद्ध प्रयोग में 'घोष' का लक्ष्य अर्थ 'मकर' आदि मान लेने पर भी अन्वय की अनुपपत्ति दूर हो जाती है। फिर 'गङ्गा' पद में 'लक्षणा' की कल्पना करके उसका अर्थ 'तट' क्यों किया जाय ? तथा इसी प्रकार 'गङ्गायां पापी गच्छति' इस प्रयोग में 'गङ्गा' का लक्ष्य अर्थ यदि 'नरक' मान लिया जाय तो भी अन्वय सुसंगत हो जाता है। फिर 'पापी' में 'लक्षणा वृत्ति' की कल्पना करके उसके द्वारा 'पापी' का अर्थ 'भूतपूर्व पाप से युक्त व्यक्ति' क्यों किया जाय । इसी तरह "नक्षत्रं दृष्ट्वा वाचं विसृजेत्" इस वाक्य में 'रात्रि में मौन तोड़े' इस अर्थ की दृष्टि से 'लक्षणा' क्यों मानी जाय, जब कि दिन में नक्षत्रों के दिखाई देने से मौन तोड़ने की संगति दिन में लग जाती है ?
इस अतिव्याप्ति दोष के कारण दूसरा पक्ष यह उपस्थित हुआ कि केवल 'तात्पर्यानुपपत्ति' को ही 'लक्षणा' का मूल माना जाय । इन सभी प्रयोगों में वक्ता का वह तात्पर्य नहीं है जिसमें अन्वय की संगति लग जाती है। इसलिये उस तात्पर्य विशेष की दृष्टि से उन-उन पदों में 'लक्षणा' वृत्ति मानना आवश्यक हो जाता है। इसके अतिरिक्त जब केवल तात्पर्यानुपपत्ति को 'लक्षणा' की बीज मानने से काम चल जाता है तो फिर दोनों--'अन्वयानुपपत्ति' तथा 'तात्पर्यानुपपत्ति'-को 'लक्षणा' का मूल मान कर गौरव (विस्तार) को क्यों अपनाया जाय ? तुलना करो-“लक्षणाबीजं तु तात्पर्यानुपपत्तिरेव न त्वन्वयानुपपत्तिः । 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इत्यत्र अन्वयानुपपत्तेरभावात्' । 'गङ्गायां घोषः' इत्यादौ तात्पर्यानुपपत्तेरपि सम्भवात्' (वेदान्त-परिभाषा, आगमपरिच्छेद)। इसका अभिप्राय यह है कि तात्पर्यानुपपत्ति ही 'लक्षणा' का बीज है, अन्वयानुपपत्ति नहीं। क्योंकि ‘काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इस वाक्य में अन्वय की उपपत्ति, अर्थात् वाक्य के पदों का परस्पर अन्वय, हो जाने पर भी 'लक्षणा' मानी ही जाती है। तथा 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि प्रयोगों में अन्वय की अनुपपत्ति के साथ तात्पर्यानुपपत्ति भी है ही। न्यायसिद्धान्तमुक्तावली (शब्दपरिच्छेद, कारिका संख्या ८२) में भी तात्पर्यानुपपत्ति को ही लक्षणा का बीज माना गया है । द्र०-"लक्षणा शक्यसम्वन्धस् तात्पर्यानुपपत्तितः ।" [लक्षणा का एक तीसरा प्रकार-'जहद्-अजहल्लक्षणा']
विशिष्टार्थ-बोधक-शब्दस्य पदार्थंकदेशे लक्षणायां 'जहद्
अजहल्लणा' इति व्यवहरन्ति वृद्धाः । वाच्यार्थे' किंचिद् १. निस०, काप्रशु०-वाक्यार्थे
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