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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
स्व-स्वामिभाव-सम्बन्धात् । यथा--राजकीयः पुरुषो राजा । क्वचिद् अवयव-अवयविभावात् । यथा-अग्रहस्तः इत्यत्र अग्रमात्रे अवयवे हस्तः । क्वचित् तात्कात् यथा-अतक्षा तक्षा"। शब्दप्रयोग के अनुसार इस प्रकार के अन्य अनेक सम्बन्ध ढूंढे जा सकते हैं।
['तात्पर्य' की अनुपपत्ति लक्षणा का मूल है ]
अन्वयानुपपत्ति-प्रतिसन्धानं च लक्षणाबीजम् । वस्तुतस्तु तात्पर्यानुपपत्ति-प्रतिसन्धानम् एव तद्बीजम् । अन्यथा 'गंगायां घोषः' इत्यादौ 'घोष'-ग्रादिपदे मकरादिलक्षणापत्तिः, तावताप्यन्वयानुपपत्ति-परिहारात् । 'गंगायां पापी गच्छति' इत्यादौ 'गंगा'-पदस्य नरके लक्षणापत्तेश्च । अस्माकं तु भूतपूर्व-पापावच्छिन्नलक्षकत्वे तात्पर्यान्न दोषः । "नक्षत्रं दृष्टवा वाचं विसृजेत्" इत्यत्र अन्वय-सम्भवेऽपि तात्पर्यानुपपत्त्यैव लक्षरणा-स्वीकारात् । एकानुगमकस्वीकारेण निर्वाहे अनेकानुग मकस्वीकारे गौरवाच्च ।
अन्वय आदि (तात्पर्य) की असंगति का विचार ही लक्षणा का मूल है । परन्तु वस्तुतः वक्ता के तात्पर्य का बोध न हो पाना ही लक्षणा का बीज है। अन्यथा (केवल तात्पर्यानुपपत्ति को लक्षणा का बीज न मानने से 'गगायां घोषः, (गंगा में आभीरों की बस्ती है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'घोष' आदि शब्दों में 'मकर' (मगरमच्छ आदि) की लक्षणा मानी जाने लगेगी, क्योंकि उतने से भी अन्वय की असंगति दूर हो जाती है। तथा (इसी प्रकार) गङ्गा में पापी जाता है' इत्यादि (प्रयोगों) 'गङ्गा' पद की नरक अर्थ में 'लक्षणा' होने लगेगी।
(तात्पर्यानुपपत्ति को 'लक्षणा' का बीज मानने वाले) हमारे मत में तो भूतपूर्व पाप से युक्त व्यक्ति को लक्ष्य बनाने में (ही) तात्पर्य है इसलिये (कोई) दोष नहीं है । "नक्षत्र को देखकर वागी उच्चारण करे (मौन तोड़े)", यहाँ (दिन के समय भी कभी कभी नक्षत्र के दिखाई देने से) अन्वय सम्भव होने पर भी, (रात्रि में ही मौन तोड़ना है इस) तात्पर्य की उपपत्ति न होने के कारण 'लक्षणा' मानी जाती है । तथा एक (केवल तात्पर्य रूप) अनुगमक को मानने से (भी) काम चल जाने पर अनेक अनुगमक को मानने में गौरव भी तो है।
१.
ह.-अनेकानुगम।
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