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७.५८]
सप्तमोऽधिकारः
६७
इत्यादेशं स यक्षेशो मू दायामरेशिनः । द्विगुणीभूतसद्भाव आजगाम महीतलम् ॥४५॥ ततः प्रत्यहमारेभे मणिकाञ्चनवर्षणः । रत्न वृष्टिं मुदा कर्तु भूपधामनि सोऽमरः ॥४६॥ नानारत्नमयाधारा सैरावतकराकृतिः । पतन्ती श्रीरिवायान्त्यभात् पुण्यकल्पशाखिनः ॥४७॥ दीप्रा हिरण्यमयी वृष्टिः पतन्ती खाणणाद् बभौ । ज्योतिर्मालेव सायान्ती सेवितुं पितरौ गुरोः ॥१८॥ प्राग्गर्भाधानतः षण्मासान्तं सिद्धार्थमन्दिरे । साध कल्पद्रुमोद्भुतपुष्पगन्धाम्बुवृष्टिमिः ॥४९॥ रनवृष्टिं चकारोच्चमहाय॑मणिकाञ्चनैः । धनदोऽनुदिनं भूत्या सेवया श्रीजिनेशिनः ॥५०॥ तदा नृपाकयं दीप्रमाणिक्यस्वर्णैराशिभिः । पूर्ण तन्मणिरम्यौधैर्ग्रहचक्रमिवाबमौ ॥५१॥ केचिद् विचक्षणा वीक्ष्य साङ्गणं भूपधाम तत् । व्याप्तं सन्मणिहेमाद्यैस्तदेत्याहुः परस्परम् ॥५२॥ अहो पश्येदमत्यन्तं माहात्म्यं त्रिजगद्गुरोः । यतोऽस्य मन्दिरं रत्नैः पूरयामास यक्षराट् ॥५३॥ तदाकापरेऽप्यूचुरित्यहो नैतदद्भुतम् । किन्तु भक्त्याहंतः पित्रोः सेवां कुर्वन्ति वासवाः ॥५४॥ तच्छ्रुत्वान्ये वदन्तीत्थं सर्वमेतदहो फलम् । धर्मस्य प्रवरं रत्न वृष्टयर्हत्सुतगोचरम् ॥५५॥ यतो धर्मेण जायन्ते पुत्रा लोकत्रयार्चिताः । तीर्थशपदकल्याणसंपदो दुर्घटानि च ॥५६॥ ततोऽपरे जगुश्चैवमहो सस्यमिदं वचः । यस्माद् धर्माइते न स्युः सून्वायभीष्टसंपदः ॥५॥ तस्मात् सुखार्थिभिनित्यं कार्यों धर्मः प्रयत्नतः । अहिंसालक्षणो द्वेधाणुमहाव्रतनिर्मलैः ॥८॥
भवनमें रत्नोंकी वर्षा करो, तथा पुण्य-प्राप्तिके लिए स्व-परको सुख करनेवाले शेष आश्चर्योको भी करो ॥४२-४४॥ वह यक्षेश अमरेन्द्र के इस आदेशको शिरोधार्य कर द्विगुण हर्षित होता हुआ महीतल पर आया ।।४५।। तत्पश्चात् उस यक्षेशने सिद्धार्थ राजाके भवनमें प्रतिदिन मणिसुवर्ण बरसाते हुए हर्षसे रत्नवृष्टि आरम्भ कर दी ॥४६॥ ऐरावत हाथीकी सूंड़के समान आकारवाली नाना रत्नमयी वह धारा आकाशसे गिरती हुई ऐसी शोभती थी, मानो पुण्यरूपी कल्पवृक्षसे लक्ष्मी ही आ रही हो ॥४७॥ गगनांगणसे गिरती हुई वह देदीप्यमान हिरण्यमयी वृष्टि इस प्रकार शोभा दे रही थी, मानो त्रिजगद्-गुरुके माता-पिताको सेवा करनेके लिए ज्योतिर्मय नक्षत्रमाला ही आ रही हो ॥४८॥
गर्भाधानसे पूर्व छह मासतक सिद्धार्थ नरेशके मन्दिरमें कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए पुष्पोंके और सुगन्धित जलवर्षाके साथ, तथा बहुमूल्यवाले मणियों और सुवर्णो के द्वारा श्री जिनेश्वरदेवकी विभूतिसे सेवा करनेके लिए प्रतिदिन महारत्नवृष्टि करने लगा ।।४९-५०।। उस समय कान्तिमान माणिक्य और सुवर्णकी राशियोंसे परिपूर्ण राजमन्दिर मणियोंकी रमणीक किरण-समूहसे प्रकाशमान ग्रहचक्रके समान शोभाको प्राप्त हो रहा था ॥५१॥ उस समय कितने ही विचक्षण पुरुष उत्तम मणि-सुवर्णादिसे व्याप्त राजभवन और आँगनको देखकर परस्पर इस प्रकार कहने लगे ॥५२॥ अहो, त्रिजगद्-गुरुके इस असीम माहात्म्यको देखो कि यक्षराजने इस राजाका मन्दिर रत्नोंसे पूर दिया है ॥५३॥ उनकी यह बात सुनकर दूसरे लोग बोले-अहो, यह कोई अद्भुत बात नहीं है, क्यों के तीर्थकरके माता-पिताकी सेवाको देव भक्तिसे करते हैं ॥५४|| उनकी यह बात सनकर अन्य पुरुष इस प्रकार बोलेअहो, यह सब धर्मका प्रकृष्ट फल है जो होनेवाले तीर्थकर पुत्रके सम्बन्धसे यह भारी रत्नवर्षा हो रही है ।।५५॥ क्योंकि धर्मके प्रभावसे तीन लोक-द्वारा पूजित तीर्थकर पदकी कल्याणरूप सम्पदावाले पुत्र उत्पन्न होते हैं और दुःखसे प्राप्त होनेवाली वस्तुएँ भी सुखसे अनायास प्राप्त हो जाती हैं ॥५६॥ तब दूसरे लोग इस प्रकार बोले-अहो, यह वचन सत्य है, क्योंकि धर्मके बिना पुत्र आदि अभीष्ट सम्पदाएँ नहीं प्राप्त होती हैं ॥५७। इसलिए सुखके इच्छुक मनुष्योंको नित्य ही प्रयत्न पूर्वक धर्म करना चाहिए। वह अहिंसा लक्षण धर्भ निर्मल अणुव्रत और महावतके भेइसे दो प्रकारका है ॥५८।।
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