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श्री वीरवर्धमानचरिते
सा कलेवैन्दवी कान्त्या जगदानन्ददायिनी । कलाविज्ञान चातुर्यैर्भारतीव जनप्रिया ॥ २९ ॥ जितनीरजपादाब्जा नखचन्द्रांशुराजिता । मणिनूपुरशंकारैर्मुखरीकृतदिङ्मुखा ॥३०॥ कदलीगर्भसादृश्यमृदुजङ्घा मनोहरा । चारुजानुद्वयोपेता चुदारोरुद्रयाङ्किता ॥ ३१ ॥ मनोभूधामसंकाशकलत्रस्थानभूषिता । काञ्चीदा मांशुकैर्दिव्यैः परिष्कृतकटीतटा ||३२|| कृशमध्या महाकाया निम्ननाभिस्तनूदरा । मणिहारादिभूषाङ्गा तुङ्गवारुपयोधरा ॥३३॥ निर्जिताशोकमच्छायमृदुदिव्यकरान्विता । कण्ठाभरणशोभाच्या शुभकण्ठातिकोकिला ॥३४॥ महाकान्तिकलालापदीप्त्युद्योतितसम्मुखा । कर्णाभरणविन्यासैः सुकर्णाभ्यामलंकृता ॥ ३५ ॥ अष्टमीन्दुसमाकारललाटा दिव्यनासिका । मनोज्ञभ्रूलतानीलकेश खग्युतमस्तका ॥३६॥ अतीव रूपसौन्दर्य लावण्यसुश्रुतात्मिका । परमैखिजगत्सा रैरणुभिर्निर्मिता सती ॥३७॥ इत्याद्यैरपरैः कृत्स्नैः स्त्रीलक्षणस मुस्करैः । सा शचीव बभौ लोकेऽसाधारण गुणवजैः ॥ ३८ ॥ खनीव गुणरत्नानां निधिर्वाखिलसंपदाम् । श्रुतदेवीव सानेकशास्त्राब्धेः पारगा व्यमात् ॥३९॥ साभवत्प्रेयसी भर्तुः प्राणेभ्योऽतिगरीयसी । इन्द्राणीवामरेन्द्रस्य परा प्रणयभूमिका ||४०|| तौ दम्पती महापुण्यपरिपाकान्महोदयौ । महाभोगोपभोगादीन् भुञ्जानौ तिष्ठतो मुदा ॥४१॥ अथ सौधर्मकल्पेश ज्ञात्वाच्युतसुरेशिनः । षण्मासावधिशेषायुः प्राहेति धनदं प्रति ॥ ४२ ॥ श्रीदात्र भारते क्षेत्रे सिद्धार्थनृपमन्दिरे । श्रीवर्धमानतीर्थेशश्वरमोऽवतरिष्यति ॥४३॥ अतो गत्वा विधेहि त्वं रत्नवृष्टिं तदालये । शेषाश्वर्याणि पुण्याय स्वान्यशर्माकराणि च ॥ ४४॥
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वह अपनी कान्तिसे चन्द्रमाकी कलाके समान जगत्को आनन्द देनेवाली थी । कला विज्ञान चातुर्य द्वारा सरस्वतीके समान सर्वजनोंको प्रिय थी, अपने चरणकमलोंसे जलमें उत्पन्न होनेवाले कमलोंको जीतती थी, नखरूप चन्द्रकी किरणोंसे शोभित थी, मणिमयी नूपुरोंकी झंकारोंसे सर्व दिशाओंको व्याप्त करती थी ।।२९-३०।। के लेके गर्भ- सदृश कोमल जंघावली, मनोहर, दो सुन्दर जानुओंसे युक्त, दो उदार ऊरुओंसे भूषित, कामदेव निवासस्थानवाले स्त्री- चिह्न से भूषित, कांचीदाम ( करधनी ) और दिव्य वस्त्रोंसे परिष्कृत कमरवाली, मध्यमें कृश और ऊपर पुष्ट शरीरवाली, गम्भीरनाभिवाली, कृशोदरी, मणियोंके हार आदिसे भूषित अंगवाली, उन्नत सुन्दर स्तनोंकी धारक, अशोककी पत्रकान्तिको जीतनेवाले कोमल हाथोंसे युक्त, कण्ठके आभूषणोंसे शोभित, उत्तम कण्ठ - स्वर से कोकिलकी बोलीको जीतनेवाली, महाकान्ति, कलकलालाप और दीप्तिसे प्रकाशित उत्तम मुखवाली, कानोंके आभूषण युक्त सुन्दर आकारवाले कानोंसे अलंकृत, अष्टमीके चन्द्रसमान ललाटवाली, दिव्य नासिकावाली, सुन्दर भ्रूलता, नीलकेश और पुष्पमालासे युक्त मस्तकवाली, अत्यन्त रूप-सौन्दर्य, लावण्य और उत्तम विद्याओंको धारण करनेवाली वह सती प्रियकारिणी, मानो तीन लोकमें सारभूत परमाणुओंसे निर्मित प्रतीत होती थी। इन उक्त गुणोंको आदि लेकर अन्य समस्त स्त्री- लक्षणोंके समूह से तथा असाधारण गुणोंके पुंजसे वह लोकमें शचीके समान शोभती थी ।। ३१-३८ । वह गुणरूप रत्नोंकी खानि थी, समस्त सम्पदाओं की निधान थी और श्रुतदेवीके समान अनेक शास्त्र - समुद्र की पारंगत थी । वह अपने भर्तारको प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी और इन्द्रके इन्द्राणी के समय परम प्रेमकी भूमिका थी ।। ३९-४० ।। महापुण्यके परिपाकसे महान् उदयको प्राप्त वे दम्पती राजा-रानी महान् भोगोपभोगको भोगते हुए आनन्दसे रहते थे || ४१ ॥
अथानन्तर सौधर्मस्वर्गका इन्द्रने उक्त अच्युतेन्द्रकी छह मास प्रमाण शेष आयुको जानकर कुबेरके प्रति इस प्रकार कहा - हे धनद, इस भरतक्षेत्र में सिद्धार्थ राजाके राजमन्दिरमें अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामी अवतार लेंगे, अतः तुम जा करके उनके