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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ ६.१२९
त्रयस्त्रिंशत्प्रमा एते त्रयस्त्रिंशाः सुरोत्तमाः । तव पुत्रसमानाः स्युः स्नेहनिर्भरमानसाः || १२९ || चत्वारिंशत्सहस्राणि ह्यात्मरक्षा इमेऽमराः । तेऽप्यङ्गरक्षकैस्तुल्या विमवायैव संस्थिताः ॥ १३० ॥ एषान्तः परिषत्तेऽस्ति सपादा शतसंख्यिका । सार्धंद्विशतसंख्या च मध्यमा परिषत्परा ॥ १३१ ॥ शतपञ्चमा बाह्या तवादेशविधायिनी । चत्वारो लोकपाला एते तल्लोकान्तपालकाः || १३२॥ ratri लोकपालानां प्रत्येकं सुमनोहराः । द्वात्रिंशद् गणना देव्यः सन्ति शर्मादिखानयः ।। १३३ । अष्टाविमा महादेव्य रूपसौन्दर्यभूषिताः । तवादेशविधायिन्यस्त्वद्रागरञ्जिताशयाः ॥ १३४ ॥ आसां सन्त्यत्र प्रत्येकं परिवारसुराङ्गमाः । त्रिज्ञानविक्रिययान्याः सार्धं द्विशतसंख्यकाः ॥ १३५ ॥ एता वल्लभका देव्यस्त्रिषष्टिप्रमिताः शुभाः । तव चेतोऽपहारिण्यो महतीरूपसंपदा ।। १३६ ।। पिण्डिता निखिला देव्यस्तास्ते नाथ समर्पिताः । द्विसहस्राधिकै काम सप्ततिप्रमिताः पराः ।। १३७ || दशलक्ष चतुर्विंशतिसहस्रप्रमाण्यपि । विकरोत्येकशो देवी दिव्यरूपाणि योषिताम् ।।१३८ ।। हस्तिनोऽश्वा रथा पादातयो वृषाश्च सत्तमाः । गन्धर्वाः सुरनर्तक्यः सप्तानीकान्यमून्यपि ॥ १३९ ॥ तदेकैकचमूनां स्युः सप्तकक्षाः पृथक् पृथक् । देवास्तेषां हि प्रत्येकं सन्ति सेना-महत्तराः ॥ १४० ॥ प्रथमे च गजानीके सहस्रविंशतिप्रमाः । गजा शेषेष्वनीकेषु द्विगुणद्विगुणा मताः ।। १४१ ।। तथैव तुरगादीनां षट्सैन्यानां सुराधिप । विन्दि संख्यामनूनां त्वं तव सेवापरायिणाम् || १४२ || एकैकस्या हि देव्या अप्सरसां परिषत्त्रयम् । गीतनृत्यकलाज्ञानविज्ञानादिकुलालयम् ॥१४३॥ परिषत्प्रथमायामप्सरसः पञ्चविंशतिः । द्वितीयायां च पञ्चाशत् तृतीयायां शतप्रमाः ॥ १४४ ॥
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संख्यावाले सामानिक देव हैं । आज्ञा के विना शेष सब महाभोगों में ये आपके समान ही महाऋद्धिवाले हैं || १२८ || ये तीस संख्यावाले देवोंमें उत्तम त्रायस्त्रिश देव हैं। ये आपके पुत्रके समान हैं और इनका हृदय आपके प्रति स्नेहसे भरा हुआ है ॥ १२९ ॥ | ये चालीस हजार आत्मरक्षक देव हैं, जो आपके अंगरक्षकोंके समान हैं और केवल वैभव के लिए ही हैं ।। १३० ॥ ये एक सौ पचीस देव आपकी अन्तःपरिषद् के सदस्य हैं । ये दो सौ पचास देव मध्यम परिषद् के सभासद् हैं और ये पाँच सौ देव बाहरी परिषद् के पारिषद हैं। ये सभी देव आपकी आज्ञाकारी है। ये चार लोकपाल हैं जो आपकी अपनी-अपनी दिशाका लोकसे अन्ततक पालन करते हैं ॥१३१-१३२।।
इन लोकपालों में से प्रत्येककी बत्तीस-बत्तीस देवियाँ हैं, जो सुख भोगादिकी खानि हैं || १३३ ॥ | ये रूप लावण्य से भूषित आपकी आठ महादेवियाँ हैं, जो आपकी आज्ञाकारिणी और आपके रागमें रंजित हृदयवाली हैं || १३४|| इन प्रत्येक महादेवीके परिवार में ढाई-ढाई सौ देवियाँ हैं जो तीन ज्ञान और विक्रिया ऋद्धिसे युक्त हैं || १३५|| ये तिरसठ वल्लभका देवियाँ हैं जो कि उत्तम भारी रूप-सम्पदासे युक्त हैं, आपके चित्तको हरनेवाली हैं ||२३६|| हे नाथ, ये सब मिलाकर दो हजार इकहत्तर परम देवियाँ आपको समर्पित हैं ||१३|| ये आपकी एक-एक महादेवी दश लाख चौबीस हजार स्त्रियोंके दिव्यरूप विक्रियासे बना सकती हैं ॥ १३८|| हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, बैल, गन्धर्व और देवनर्तकी वाली ये सात प्रकारकी आपकी उत्तम सेना है || १३९|| एक-एक जातिकी सेनाकी पृथक्-पृथक् सात-सात कक्षाएँ हैं । प्रत्येक कक्षा ( पलटन) के अलग-अलग सेना महत्तर ( सेनापति ) देव हैं ||१४० ॥ हाथियोंकी पहली कक्षा में बीस हजार हाथी हैं। शेष कक्षाओंमें इससे दूनी दूनी संख्या है। इसी प्रकार हे देवेन्द्र, आपकी आज्ञा - परायण घोड़े आदि छहों सेनाओंके प्रत्येक कक्षाकी संख्या जानिए ।।१४१-१४२ ।। एक-एक देवीकी अप्सराओंकी तीन-तीन सभाएँ हैं, जो कि गीत, नृत्य, कला, ज्ञान-विज्ञानादि गुणोंसे सम्पन्न हैं || १४३ || महादेवीकी प्रथम अन्त:परिषद् में पचीस देवियाँ हैं, दूसरी मध्यम परिषद् में पचास देवियाँ हैं और तीसरी बाहरी
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