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६.१२८]
षष्ठोऽधिकारः मो देव कुरु नः स्वामिन् प्रसादं स्वच्छया दशा । नुतानां शृणु वाक्यं ते पूर्वापरार्थसूचकम् ॥११७॥ अद्य नाथ वयं धन्याः सफलं नोऽद्य जीवितम् । यतस्त्वयाधुना स्वेनोत्पादेनात्र पवित्रताः ॥११८॥ महानच्युतनामायं कल्पो विश्वर्द्धिसागरः । राजतेऽखिलकल्पानां मूर्ध्नि चूडामणिर्यथा ।।११९॥ . अत्र संकल्पिताः कामाः सुखं वाचामगोचरम् । दुर्लभं यस्त्रिलोकेऽपि सुलमं तत्सतामिह ॥१२॥ गावः कामदु घाः सर्वे पादपाः कल्पशाखिनः । चिन्तामणय एवात्र रत्नान्येव निसर्गतः ॥१२॥ नात्र जातु प्रवर्तन्ते ऋतवो दुःखहेतवः । किन्त्वेकः साम्यतापन्नः कालः स्याद् विश्वसौख्यदः ॥१२२॥ दिन-रात्रिविभागोऽत्र विद्यते जातुचिन्न हि । रलालोकः स्फुरत्येको दिनश्रीसुखकारकः ॥१२३॥ नात्र दोनोऽसुखी रोगी दुर्भगो वा गतप्रभः । अपुण्यो निर्गुणोऽज्ञश्च जातु स्वप्नेऽपि दृश्यते ॥१२४॥ वर्ततेऽत्र सदाप्येका महापूजा जिनेशिनाम् । जिनालयेषु नृत्याद्यैश्चोत्सवोऽनुदिनं महान् ।।१२५।। असंख्यसंख्यविस्ताराः स्वर्विमाना हि योजनैः । शतानेकानषष्टिप्रमा एते शर्मवार्धयः ।।१२६।। तेषां मध्ये त्रयोविंशत्यग्रं शतं प्रकीर्णकाः । श्रेणीबद्धास्ततो ज्ञेया भन्ये दिव्याः सहेन्द्रकोः ॥१२॥ एते सामानिका देवा सहस्रदशसंख्यकाः । आज्ञां विना महाभोगैस्त्वत्समाना महर्डिकाः ॥१२॥
जबतक हृदयमें सन्देहका नाश करनेवाला निश्चय नहीं हो रहा था, तभी उसके कुशल विद्वान् सचिव अवधिज्ञानरूप नेत्रसे उसके अभिप्रायको जानकर और उसके चरणोंको नमस्कार कर अपने दोनों हाथोंको जोड़कर मस्तकपर रखते हुए हर्षसे दिव्य वाणी द्वारा उसका सन्देह दर करने के लिए उससे बोले ॥११४-११६।।
हे देवेन्द्र, हे स्वामिन् , निर्मल दृष्टिसे हम लोगोंपर प्रसन्न होइए, और नमस्कार करते हुए आपके पूर्वापर अर्थ-सम्बन्धके सूचक हमारे वाक्य सुनिए ॥११७॥ हे नाथ, आज हम लोग धन्य हैं, आज हमारा जीवन सफल हो गया, क्योंकि आज आपने अपने जन्मसे यहाँपर हम लोगोंको पवित्र किया है ॥११८॥ यह सर्व ऋद्धियोंवाला सागर अच्युत नामक महान् स्वर्ग है जो कि समस्त कल्पोंके मस्तकपर चूड़ामणि रत्नके समान शोभित हो रहा है ॥११९|| यहाँपर मनोवांछित भोग और वचनोंके अगोचर सुख प्राप्त हैं। जो वस्तु तीनों लोकोंमें दुर्लभ है, वह सब यहाँ उत्पन्न होनेवालोंको सुलभ है ॥१२०।। यहाँपर स्वभावसे ही सभी गाय कामधेनु हैं, सभी पेड़ कल्पवृक्ष हैं, और सभी रत्न चिन्तामणि हैं ॥१२१॥ यहाँपर दुःखकी कारणभूत ऋतुएँ कभी नहीं होती हैं। किन्तु सर्वसुखदायक साम्यताको प्राप्त एक-सा ही काल रहता है।।१२२॥ यहाँपर कभी भी दिन-रातका विभाग नहीं होता। किन्तु दिनकी शोभा और सुखका करनेवाला एकमात्र रत्नोंका प्रकाश रहता है ॥१२३।। यहाँपर दीन, दुःखी, रोगी, अभागी, कान्तिहीन, पापी और गुण-रहित कोई भी जीव स्वप्नमें भी नहीं दिखाई देता है ॥१२४।। यहाँपर जिनमन्दिरोंमें सदा ही श्री जिनेन्द्रदेवोंकी महापूजा होती रहती है और नृत्य-संगीत आदिसे प्रतिदिन महान् उत्सव होता रहता है ।।१२५।। यहाँपर असंख्यात और संख्यात योजन विस्तारवाले श्रेणीबद्ध देव-विमान हैं, जिनकी संख्या एक सौ उनसठ है और वे सभी सुखके सागर हैं ॥१२६।। उनके मध्यमें अन्य एकसौ तेईस प्रकीर्णक विमान हैं । ये सब दिव्य हैं। इस अच्युत कल्पमें छह इन्द्रक विमान हैं ॥१२॥ ये दश हजारकी
१. र्षाडन्द्रका, प्रतिभाति । २. श्लोक सं. १२६-१२७ में जो श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकविमानोंकी संख्या दी गयी है, उसका मिलान
तिलोयपण्णत्ती और त्रिलोकसारादिमें दी गयी संख्यासे नहीं होता है। 'सहेन्द्रका' पाठके स्थानपर 'षडिन्द्र काः' पाठ मानकर छह इन्द्रक विमान अर्थ किया है। क्योंकि त्रिलोकसार गा०४६२ में आनतादि चार कल्पोंमें छह इन्द्रक बतलाये हैं ?-अनुवादक ।
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