________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३.१००] तृतीयोऽधिकारः
२५ श्रीमानितः खगाधीशः पुण्यधीविनयाङ्कितः । न्यायमार्गरतो दक्षो नगराद् रथनू पुरात् ॥८॥ ज्वलनादिजटी ख्यातो नमिवंशनभोंऽशुमान् । पौदनाख्यपुराधीशं प्रजापतिमहीपतिम् ॥८७॥ आदितीर्थकरोल्पन्नबाहुबल्यन्वयोद्भवम् । शिरसा स्नेहतो नत्वा कुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥८॥ सप्रश्रयं प्रजानाथमित्थं विज्ञापयत्यसौ । वैवाहिकः सुसंबन्धी विधेयो नाधुना मया ॥८॥ स्वया वास्त्यावयोः किंतु पारम्पर्यागतोऽत्र सः। विशुद्धवंशयोरद्य नैव कार्य परीक्षणम् ॥१०॥ मद्रागिनेयपूज्यस्य त्रिपृष्ठस्य स्वयम्प्रभा । मत्सुता श्रीरिवान्याहो आतनोतु रतिं पराम् ॥११॥ तद्वन्धुभाषितं श्रुत्वा प्रजापतिनृपो मुदा । तस्येष्टं यन्ममेष्टं तदित्यमात्यमतोषयत् ॥१२॥ सोऽपि सन्मानदानादीन् प्राप्तो राज्ञा विसर्जितः। सद्यः स्वस्वामिनं प्राप्य कार्य सिद्धिं न्यवेदयत् ॥१३॥ ततो द्रुतं मुदानीय सार्ककीर्तिः खगाधिपः । स्वयंप्रभा महाभूत्या विवाहविधिना स्वयम् ॥९॥ त्रिपृष्ठाय ददौ प्रीत्या भाविनीमिव सच्छ्रियम् । अहो पुण्योदयात्पुंसां दुर्लभं किं न जायते ॥१५॥ जामात्रेऽदात्पुनः सिंहवाहिनी खगनायकः । यथोक्तविधिना चान्यां विद्यां गरुडवाहिनीम् ॥१६॥ तयोः संपद्विवाहादिवार्तानवणवह्नितः । चरास्याच्च ज्वलिताशु सोऽश्वग्रीवो नराधिपः ॥९॥ बहुमिः खगपैः सैन्येनावृतः सङ्गराय च । रथावर्ताचलं प्राप चक्ररत्नाद्यलंकृतः ॥९८॥ तदागमनमाकर्ण्य चतुरङ्गबलान्वितः । प्रागेवागत्य तत्रास्थात्रिपृष्ठः सह बन्धुना ॥९९॥ ततोऽद्भुतरणे तत्र निर्जितो भाविचक्रिणा। मायेतरादिसंग्रामैहयग्रीवोऽतिविक्रमात् ॥१०॥
__ यहाँ रथनपुर नामक नगरसे विद्याधरोंका स्वामी, पुण्यबुद्धि, विनयावनत,न्यायमार्गरत, दक्ष, नमिवंशरूप गगनका सूर्य श्रीमान् ज्वलनजटी नामका राजा आदि तीर्थंकर ऋषभदेवसे उत्पन्न बाहुबलीके वंशमें पैदा हुए पोदनापुरके स्वामी श्री प्रजापति महीपालको स्नेहसे मस्तक द्वारा नमस्कार कर वह प्रजानाथसे इस प्रकार सविनय निवेदन करता है कि हम लोगों का वैवाहिक सम्बन्ध ( आपका हमारे साथ ) अथवा हमारा आपके साथ अभी तक नहीं हुआ है, किन्तु हमारा आपका परम्परागत सम्बन्ध है। हम दोनोंका वंश विशुद्ध है, अतः इस विषयमें कोई परीक्षण नहीं करना चाहिए | मेरी पुत्री स्वयंप्रभा जो मानो साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान है, वह मेरे पूज्य भागिनेय (भानेज ) त्रिपृष्ठकी परम रतिको विस्तारित करे। अर्थात् मेरी पुत्री आपके पुत्रकी प्रिया होवे ।।८६-९१।।
प्रजापति राजा अपने उस बन्धुकी इस कही गयी बातको सुनकर हर्षसे बोला-'जो बात उन्हें इष्ट है, वह मुझे भी इष्ट है।' ऐसा कहकर उस समागत मन्त्रीको सन्तुष्ट किया ॥१२॥ तथा सम्मान-दानादिके द्वारा राजासे बिदा पाकर वह मन्त्री (दूत ) शीघ्र ही अपने स्वामीके पास पहुँचा और कार्यकी सिद्धिको निवेदन किया ।।१३।। तत्पश्चात् अर्ककीर्ति पुत्रके साथ विद्याधरोंके स्वामी ज्वलनजटीने शीघ्र ही स्वयम्प्रभा पुत्रीको लाकर हर्षसे विवाह विधिके साथ स्वयं ही प्रीतिपूर्वक त्रिपृष्ठके लिए दी। वह कन्या मानो आगे होनेवाली उत्तम राज्यलक्ष्मीके ही समान थी । अहो, पुण्यके उदयसे मनुष्योंको कौन सी दुर्लभ वस्तु नहीं प्राप्त होती है ।।९४-९५।। पुनः विद्याधरेश ज्वलनजटीने अपने जामाताके लिए सिंहवाहिनी और गरुडवाहिनी ये दो विद्याएँ यथोक्त विधिसे दी ।।१६। गुप्तचरके मुखसे उन दोनोंके सम्पन्न हुए विवाह आदिकी बातके श्रवणरूप अग्निसे प्रज्वलित हुआ वह नरपति अश्वग्रीव शीघ्र ही विद्याधरोंसे और सेनासे संयुक्त होकर तथा चक्ररत्न आ दसे अलंकृत होकर युद्ध के लिए रथनूपुरके पर्वतपर आया ॥९७-९८।। उसके आगमनको सुनकर चतुरंगिणी सेनासे युक्त हो अपने भाई विजयके साथ त्रिपृष्ठ पहलेसे ही वहाँपर आकर ठहर गया ॥९९॥ तत्पश्चात् उस
१.ब मोघेतरादि० ।
For Private And Personal Use Only