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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ श्री-वीरवर्धमानचरिते [३.७१अथ तस्मिन् खगाद्रावुत्तरश्रेण्यां प्रविद्यते । रथनूपुरशब्दादिचक्रवालपुरी परा ॥७॥ ज्वलनादिजटी तस्याः पतिरासीच्छुभोदयात् । चरमाङ्गोऽतिपुण्यात्मानेकविद्याविभूषितः ॥७२॥ तत्रैवाद्रौ महारम्ये पुरे द्युतिलकाभिधे । चन्द्राभाख्यः खगेशोऽभूत्सुभद्रास्य प्रियाजनिः ॥७॥ वायुवेगा तयोर्जाता पुत्री रूपादिशालिनी । यौवने परिणीता ज्वलनादिजटिनापि सा ॥७॥ अर्ककीर्तिस्तयोः सूनुर्बभूवार्क निभो गुणैः । सुता स्वयंप्रभाख्या च दिव्यरूपा शुभाशया ॥७५॥ खगाधीशोऽन्यदा वीक्ष्य पुत्री सर्वाङ्गयौवनाम् । ददतीं जिनगन्धोदकमाला धर्मतत्पराम् ॥७६॥ नैमित्तिकं समाहूय संभिन्न श्रोतृसंज्ञकम् । अस्याः को मविता मर्ता पप्रच्छेतिस पुण्यवान् ॥७॥ तत्प्रश्नात्स उवाचेदं राजन्नाद्याधचक्रिणः । त्रिपृष्ठस्य महादेवी त्वत्सुतेयं भविष्यति ॥७॥ खगानेरुभयश्रेण्योस्तदत्तां चक्रवर्तिताम् । त्वमाप्स्यसि खगेशानां नान्यथैतच्छ्रुतोदितम् ॥७९॥ इति तेनोक्तसद्-वाक्ये विक्षाय निश्चयं नृपः । अमात्यमिन्द्रनामानं माक्तिकं सुश्रुताङ्कितम् ॥४०॥ सलेखं प्राभृतेनामा प्राहिणोत्पौदनं प्रति । न्योम्नास्मादाशु स प्राप वनं पुष्पकरण्डकम् ॥१॥ त्रिपृष्ठः प्राक् परिज्ञाय नैमित्तिकमुखात्स्वयम् । तदागमनमेवाशु गत्वा तत्सन्मुखं मुदा ॥४२॥ बहुमानेन दूतं तं नृपास्थानं समानयत् । परार्घ्य मणिनिर्माणमनेकनृपवेष्टितम् ॥४३॥ पौदनाधिपति सोऽपि मूर्धा नत्वा सपत्रकम् । प्रदाय प्राभृतं तस्मै यथास्थानमुपाविशत् ॥८॥ वीक्ष्य मुद्रा समुभिद्य तदन्तःस्थितपत्रकम् । प्रसार्य वाचयामास स होत्यसौ कार्यसूचकम् ॥८॥ सेव्य, प्रतापी, भोगमें तत्पर अर्धचक्री (प्रतिनारायण ) पुत्र उत्पन्न हुआ ॥६८-७०।। उसी विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें रथनूपुरचक्रवाल नामकी उत्तम नगरी थी। उसका स्वामी पुण्योदयसे ज्वलनजटी नामका अनेक विद्याओंसे विभूषित, अति पुण्यात्मा और चरमशरीरी विद्याधर था ॥७१-७२॥ उसी ही विजयार्धपर्वतपर द्युतिलक नामके महारमणीकपुरमें चन्द्राभ नामका एक विद्याधरोंका स्वामी रहता था। उसकी सुभद्रा नामकी प्रिया थी। उनके वायुवेगा नामकी रूप-कान्तिशालिनी पुत्री हुई। यौवनको प्राप्त होनेपर ज्वलनजटीने उसके साथ विवाह किया । उनके गुणोंसे सूर्यके समान अर्ककीति नामका पुत्र उत्पन्न हुआ और स्वयंप्रभा नामकी दिव्यरूपवाली शुभलक्षणा पुत्री भी उत्पन्न हुई ।।७३-७५।। एक बार धर्म में तत्पर वह स्वयंप्रभा जब अपने पिताको गन्धोदक और पुष्पमाला दे रही थी, तब सर्वाङ्गयौवनवती अपनी पुत्रीको देख कर उस विद्याधरोंके स्वामी ज्वलनजटीने संभिन्नश्रोता नामवाले ज्योतिषीको बुलाकर पूछा कि कौन पुण्यवान् मेरी इस पुत्रीका स्वामी होगा ? उसके प्रश्नके उत्तरमें उसने कहा-हे राजन् , आपकी पुत्री प्रथम अर्धचक्री त्रिपृष्ठ नारायणकी यह महादेवी (पट्टरानी ) होगी और उसके द्वारा दिये गये इस विजयाध पर्वतकी दोनों श्रेणियोंके विद्याधरोंके चक्रवर्तीपनेको तुम प्राप्त करोगे। मेरी यह शास्त्रोक्त बात अन्यथा नहीं हो सकती है॥७६-७९।। इस प्रकार उस ज्योतिषीके द्वारा कहे गये वाक्यपर निश्चय करके ज्वलनजटी राजाने उत्तम शास्त्रज्ञानसे युक्त भक्ति-तत्पर इन्द्र नामके मन्त्रीको बुलाकर पत्र-सहित भेंटके साथ उसे पोदनपुर भेजा। वह आकाशमार्गसे शीघ्र ही वहाँके पुष्पकरण्डक वनमें पहुँचा ।।८०-८१॥ त्रिपृष्ठ ज्योतिषीके मुखसे पहले ही उसके आगमनको जानकर स्वयं ही हर्षसे उसके सम्मुख जाकर बहुत सम्मानके साथ उस दूतको राजसभामें लिवा लाया । वह दूत भी श्रेष्ठ बहुमूल्य मणिनिर्मित, अनेक नृपवेष्टित सिंहासन पर बैठे हुए पोदनाधिपतिको मस्तकसे नमस्कार करके और पत्र-सहित भेंट उन्हें देकर यथास्थान बैठ गया ।।८२-८४।। पोदनेश्वरने लिफाफेके ऊपर की मोहरको खोलकर उसके भीतर रखे हुए पत्रको पसारकर बाँचा, जिसमें कि इस प्रकार कार्यकी सूचना थी ।।८५।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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