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१८.११८ ]
अष्टादशोऽधिकारः
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ततश्चतुर्थकालोऽस्ति दुःषमादिसुषाढयः । कर्मभूमिजधर्मात्यः शलाकापुरुषान्वितः ॥१०१॥ कोटीकोट्य ब्धिमानास्य स्थितिरूना मतागमे । सहस्रवत्सराणां द्विचत्वारिंशयमाणकैः ॥१०॥ तस्यादौ मनुजाः पूर्वंककोटीवर्षजीविनः । शतपञ्चधनुस्तुङ्गाः पञ्चवर्णप्रमान्विताः ॥१०३।। दिन प्रति मनुष्यास्ते भुञ्जन्स्याहारमूर्जितम् । वारैकं तत्र जायन्ते शलाकापुरुषा इमे ॥१०॥ वृषभोऽजिततीर्थेशः शम्भाख्योऽमिनन्दनः । सुमतिः पञ्चमः पद्मप्रभः सुपार्श्वतीर्थकृत् ॥१०५॥ चन्द्रप्रमजिनः पुष्पदन्तः शीतलसंज्ञकः । श्रेयान् श्रीवासुपूज्याख्यो विमलोऽनन्तनामकः ॥१०६॥ धर्मः शान्तीश्वरः कुन्थुररो मल्लिजिनाधिपः । मुनिसुव्रतनाथः श्रीनमिनेमिजिनाग्रणीः ॥१७॥ पार्श्व: श्रीवर्धमानाख्य इमे तीर्थकरा इह । त्रिजगत्स्वामिभिर्वन्द्याः स्युश्चतुर्विशतिप्रमाः ॥१०८॥ भरतः सगरश्चक्री मघवा चक्रनायकः । सनत्कुमारचक्रेशः शान्तिकुन्थ्वरचक्रिणः १०९॥ सुभूमाख्यो महापद्मो हरिषेणो जयाभिधः । ब्रह्मदत्तोऽप्यमी ज्ञेयाश्चक्रिणो द्वादशैव हि ॥११०॥ विजयाख्योऽचलो धर्मः सुप्रभो हि सुदर्शनः। नन्दी च नन्दिमित्राख्यो रामः पद्म इमे बलाः ॥१११॥ त्रिपृष्ठाख्यो द्विपृष्ठोऽथ स्वयंभूः पुरुषोत्तमः । ततः पुरुषसिंहः पुण्डरीको दत्तसंज्ञकः ॥११२॥ लक्ष्मणः कृष्ण एवात्र वासुदेवा नव स्मृताः। त्रिखण्डस्वामिनो धीराः प्रकृत्या रौद्रमानसाः ॥११३॥ अश्वग्रीवोऽर्धचक्री च तारको मेरकाह्वयः । निशुम्मः कैटभारिश्च मधुसूदनसंज्ञकः ॥११४॥ बलिहन्ताभिधो रावणो जरासन्ध एव हि । वासुदेवद्विषोऽत्रैते तत्समानधिमागिनः ॥११५॥ त्रिषष्टिपुरुषाणाममीषां नरखगाधिपः । सुरैर्नुतपदाब्जानां पूज्यानां च परात्मनाम् ॥११॥ भवान्तराणि सर्वाणि पुराणानि पृथक-पृथक । ऋद्धयायुर्बलसौख्यानि भाविनीनिखिला गतीः ॥११७॥ विस्तरेण जिनाधीशो दिव्येन ध्वनिना स्वयम् । व्याजहार गणाधीशं गणान् प्रति शिवाप्तये ॥१८॥
तत्पश्चात् दुषमसुषमा नामका कर्मभूमिज धर्मसे युक्त तिरेसठ शलाका पुरुषोंको जन्म देनेवाला चौथा काल प्रवृत्त होता है ॥१०१॥ इसकी जिनागममें बयालीस हजार वर्षोंसे कम एक कोडाकोड़ी सागरोपम स्थिति कही गयी है ॥१०२।। इसके आदिमें मनुष्य एक पूर्व कोटी वर्पजीवी, पाँच सौ धनुष ऊँचे और पाँचों वर्गोंकी प्रभासे युक्त होते हैं ।।१०३।। वे मनुष्य प्रतिदिन एक बार उत्तम आहार करते हैं। इस काल में ये शलाका पुरुष उत्पन्न हुए हैं ॥१०४॥ भावार्थ-चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र ये तिरेसठ शलाका अर्थात् गण्य-मान्य पुरुष हुए हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं। श्री ऋषभ, अजित, शम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयान् , वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रतनाथ, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान ये चौबीस तीर्थकर इस युगमें हुए हैं। ये सभी तीन लोकके स्वामियों द्वारा वन्दनीय हैं ।।१०५-१०८।। भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर, सुभूम, महापद्म, हरिषेण, जय और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती जानना चाहिए ।।१०९११०॥ विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, पद्म और राम ये नौ बलभद्र हुए हैं।।१११॥ त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम,पुरुषसिंह, पुण्डरीक, दत्त,लक्ष्मण और कृष्ण ये नौ वासुदेव (नारायण) हुए हैं। ये सभी तीन खण्डके स्वामी, धीरवीर और स्वभावसे ही अतिरौद्र चित्त होते हैं ।।११२-११३।। अश्वग्रीव, तारक, मेरक, निशुम्भ, कैटभारि, मधुसूदन, बलिहन्ता, रावण और जरासन्ध ये नौ वासुदेवोंके प्रतिपक्षी अर्थात् प्रतिवासुदेव (प्रतिनारायण) हुए हैं। ये सभी वासुदेवके समान ही ऋद्धिके भागी होते हैं ।।११४-११५ । नराधिप, विद्याधराधिप और देवोंसे नमस्कृत चरण कमलवाले इन पूज्य तिरेसठ शलाका महापुरुषोंके सर्व भवान्तर, चरित, ऋद्धि, आयु, वल, सौख्य और भावी सब गतियोंको श्री वीर जिनेशने दिव्यध्वनिके द्वारा विस्तारसे स्वयं ही गणाधीश गौतम और सर्व गणोंको शिव-प्राप्ति के लिए
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