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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १८.८७
अवसर्पात्समास्या अवसर्पिणी तयान्यथा । पृथक-पृथक्तयोर्विद्भिः षट् काला हि प्रकीर्तिताः ॥ ८७ ॥ प्रथमोऽनावसर्पिण्याद्विरुक्कसुषमाभिधः । कालो भवेच्चतुः कोटी कोटिसागरमानकः ||८८ || तस्यादौ भवन्त्यार्याः पल्यत्रितयजीविनः । क्रोशत्रयसमुत्तुङ्गा उदयादित्य भानिभाः ||८९ || दिनत्रयगते तेषां बदरीफलमात्रकः । दिव्याहारोऽस्ति सर्वेषां नोहारवर्जितात्मनाम् ॥९०॥ मद्यतुर्यं विभूषास्त्रग्ज्योतिदीपगृहाङ्गकाः । भोजनाङ्गाश्च वस्त्राङ्गा भाजनाङ्गा दशेत्यहो ॥९१॥ कल्पवृक्षाः सपुण्यानां ददते भोगसंपदः । संकल्पिता महाभूत्योत्तमपात्रसुदानतः ||१२|| आर्या आर्यस्वमावेन भुक्त्वा भोगान्निरन्तरम् । सहजन्मोत्थनार्यामा सर्वे यान्ति दिवालयम् ॥९३॥ उत्कृष्टा भोगभूरेषा विज्ञेयाखिलशर्मदा । तत्रैषां रौद्रपञ्चाक्षविकलत्रयवर्जिता ॥ ९४ ॥ ततो द्वितीयकालो मध्यमभोगधरान्वितः । त्रिकोटीकोटिवाराशिसमानः सुषमाह्वयः ॥ ९५ ॥ तदादौ मानवाः सन्ति द्विपल्योपमजीविनः । गव्यूतिद्वयतुङ्गाङ्गाः पूर्णेन्दुसमकान्तयः ॥ ९६ ॥ दिनद्वयान्तरे दिव्यमाहारं तृप्तिकारणम् । भुञ्जन्त्यक्षफलेनाव तुल्यं ते भोगभागिनः ||९७ ॥ पश्चात्तृतीयकालः सुषमादिदुषमाभिधः । जघन्यभोगभूभाग द्वि कोटीको व्यब्धिमानकः ॥ ९८ ॥ तस्यादौ स्युर्नरा एकपल्याखण्डायुधः शुभाः । क्रोशैकतुङ्गसदेहाः प्रियङ्गुकान्तिसंनिभाः ॥ ९९ ॥ एकान्तरेण तेषां स्यादाहारस्तृप्तिकारकः । तुल्य आमलकेनात्र कल्पदुभोगभागिनाम् ॥१००॥
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रूप बल आयु शरीर और सुखके उत्सर्पण ( वृद्धि ) होनेसे ज्ञानियोंने इसे उत्सर्पिणी काल कहा है || ८५-८६|| जिस कालमें जीवोंके रूप बल आयु शरीर और सुखादिका अवसर्पण (क्रमश: ह्रास) होता है, उसे अवसर्पिणीकाल कहा जाता है । यह उत्सर्पिणीसे विपरीत होती है । इन दोनों के पृथक-पृथक् छह काल-विभाग कहे गये हैं || ८७ || उनमेंसे अवसर्पिणीका पहला काल सुषम-सुषमा नामवाला है, इसका समय चार कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है ||८८|| इस कालके आदि में उत्पन्न होनेवाले आर्य पुरुष तीन पल्यकी आयुवाले, तीन कोशके ऊँचे और उदय होते हुए सूर्य के समान आभावाले होते हैं ||८८-८९ || तीन दिनके बीतने पर बदरी फल ( बेर ) के प्रमाणवाला उनका दिव्य आहार होता है और ये सब नीहार ( मल-मूत्रादि ) से रहित होते हैं ||१०|| उस कालमें यहाँपर मद्यांग, सूर्यांग, विभूषांग, मालांग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, वस्त्रांग और भाजनांग ये दश जातिके कल्पवृक्ष होते हैं । वे महाविभूति के साथ दिये गये उत्तम पात्रदानके फलसे पुण्यशाली उन आर्य जनोंको संकल्पित भोग-सम्पदाएँ देते हैं ॥९१-९२ ॥ वे आर्य अपने आर्य ( उत्तम ) स्वभाव से जन्म के साथ ही उत्पन्न हुई स्त्रीकेसाथ निरन्तर भोगोंको भोगकर मरणको प्राप्त हो वे सभी देवलोकको जाते हैं ॥९३॥
यह उत्कृष्ट भोगभूमि समस्त सुखोंको देनेवाली जाननी चाहिए। वहाँपर क्रूर स्वभावी पंचेन्द्रिय और विकलत्रय तिर्यंच नहीं होते हैं ||१४|| तत्पश्चात् मध्यम भोगभूमिसे युक्त दूसरा सुषमा नामका काल प्रवृत्त होता है । उसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम है || ९५|| उसके आदि में मनुष्य दो पल्योपमकाल तक जीवित रहनेवाले, दो कोशकी ऊँचाईवाले शरीरके धारक और पूर्ण चन्द्रके समान कान्तिमान् होते हैं ||२६|| भोगभूमियाँ दो दिनके पश्चात् अक्षफल ( बहेड़ा ) प्रमाणवाले, तृप्तिकारक दिव्य आहारको करते ॥९७॥ तत्पश्चात् सुषमदुषमा नामवाला, दो कोड़ाकोड़ी सागरके प्रमाणवाला जघन्य भोगभूमिसे युक्त तीसरा काल प्रवृत्त होता है ||१८|| उसके आदि में मनुष्य एक पल्यकी अखण्ड आयुके धारक, शुभ, एक कोश ऊँचे उत्तम देहवाले और प्रियंगुके समान कान्तिके धारक होते हैं ||१९|| कल्पवृक्षोंके द्वारा दिये गये भोगोंके भोगनेवाले उन मनुष्यों का एक दिनके अन्तरसे आँवले के तुल्य प्रमाणवाला तृप्तिकारक दिव्य आहार होता है ॥ १०० ॥
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