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[१५.१६९
श्री-वीरवर्धमानचरिते त्वं देव त्रिदशेश्वरार्थितपदस्त्वं धर्मतीर्थोद्धर
स्त्वं कर्मारिनिकन्दनोऽतिसुमटस्त्वं विश्वदीपोऽमलः । त्वं लोकत्रयतारणकचतुरस्त्वं सद्गुणानां निधिः
___ संसाराम्बुधिमज नाजिनपते त्वं रक्ष मां सर्वथा ॥१६९॥ इति विबुधपतीड्यो दृष्टिचिद्रनमाप्तो ।
निहतकुमतशत्रुतिसद्धर्ममार्गः। जिनपतिपदपद्मौ गौतमः संप्रणम्य
स्तवनकरणमक्त्या स्वं कृतार्थ च मेने ॥१०॥ वीरो वीरजिनाग्रणीर्गणनिधिर्वीरं भजन्ते बुधा
वीरेणवमवाप्यते शिवपदं वीराय शुद्धयै नमः । वीरान्नात्स्यपरः परार्थजनको वीरस्य तथ्यं वचो
वीरेऽहं विदधे मनः स्वसदृशं मां वीर शीघ्रं कुरु ॥११॥
इति भट्टारक-श्रीसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते श्रीगीतमागमन
_ स्तुतिकरणवर्णनो नाम पञ्चदशोऽधिकारः ॥१५॥
हे देव, आप स्वर्गके अधीश्वर इन्द्रोंके द्वारा पूजित पदवाले हैं, आप धर्मतीर्थके उद्धारक हैं, कर्म-शत्रुके विध्वंसक हैं, अतः आप महासुभट हैं, आप विश्वके निर्मल दीपक हैं, आप तीनों लोकोंको तारनेमें अद्वितीय चतुर हैं और सद्गुणोंके निधान हैं, अतएव हे जिनपते, संसार सागरमें डूबनेसे आप मेरी सर्व प्रकारसे रक्षा कीजिए ॥१६९।। इस प्रकार विद्वानोंके अधिपतियोंसे पूज्य, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप रत्नको प्राप्त, मिथ्यामतरूप शत्रुके नाशक और सद्-धर्मके मार्गके ज्ञाता गौतमने जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोंको नमस्कार करके और स्तुति करनेकी भक्तिसे अपने आपको कृतार्थ माना ॥१७॥
वीर भगवान् वीर जिनोंमें अग्रणी हैं, गुणोंके निधान हैं, ऐसे वीर जिनेन्द्रकी ज्ञानीजन सेवा करते हैं। वीरके द्वारा ही शिवपद प्राप्त होता है, ऐसे वीरके लिए आत्म-शुद्धयर्थ नमस्कार है । वीरसे अतिरिक्त अन्य कोई मनुष्य परमार्थका जनक नहीं है, वीर के वचन सत्य हैं, ऐसे वीर जिनेशमें मैं अपने मनको धरता हूँ, हे वीर, मुझे अपने सदृश शीघ्र करो ॥१७१।। इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकोति-विरचित श्रीवीर-वर्धमानचरितमें श्री गौतमके आने
और स्तुति करनेका वर्णन करनेवाला यह पन्द्रहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।।१५।।
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