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१४.१७५ ]
चतुर्दशोऽधिकारः
भान्ति चामरतालाब्दध्वजछत्रैः सहोर्जिताः । सुप्रतिष्ठिकभृङ्गारकलशा गोपुरं प्रति ॥१६३॥ द्वारेषु निकशालानां गदादिपाणयः सुराः । द्वारपालाः क्रमादासन् भौमभावननाकजाः ॥१६॥ तत्राच्छस्फटिकाच्छालादापीठान्तं समायताः । मित्तयः षोडशाभूवन् महावीथ्यन्तराश्रिताः ॥१६५॥ तासां स्फटिकमित्तीनां मूर्ध्नि श्रीमण्डपोऽभवत् । वियद्रत्नमयस्तुङ्गो रत्नस्तम्भैः समुद्धृतः ॥१६६॥ सत्यं श्रीमण्डपोऽत्रायं जगच्छ्रीमद्भिराभृतः । यत्राद्ध्वनिना भव्या लभन्ते द्युशिवश्रियम् ॥१६॥ तन्मध्ये राजते तुङ्गा प्रथमा पीठिका तराम् । वैडूर्यरत्ननिर्माणा तेजसा व्याप्तदिग्मुखा ॥१६॥ तस्याः षोडशसोपानमार्गाः स्युः षोडशान्तराः । चतुर्दिक्षु द्विषट्कोष्टप्रवेशेषु च विस्तृताः ॥ १६९॥ पीठिका तामलंचक्रुरष्टौ मङ्गलभूतयः । यक्षश्च धर्मचक्राणि प्रोद्धृतानि स्वमूर्धिभिः ॥१७॥ सहस्राराणि तान्युच्चैर्वदन्तीवांशुवाक्चयैः । धर्म जगत्सतां मान्ति जिनाश्रयाद्धसन्ति वा ॥१७१॥ तस्या उपरि सत्पीठमभवद्वितीयं परम् । तुङ्गं हिरण्मयं कान्त्या जितादित्येन्दुमण्डलम् ॥१२॥ चक्रेभेन्द्रवृषाम्भोजदिव्यांशुकमृगेशिनाम् । गरुडस्य च माल्यस्य ध्वजा अष्टौ मनोहराः ॥१७३॥ तस्योपरितले तुङ्गा राजन्ते दीप्रविग्रहैः । दिक्ष्वष्टासु सुपीठस्य सिद्धाष्टगुणसंनिभाः ॥१७॥ तस्योपरि स्फुरद्रत्नरोचिर्विध्वस्तमश्चयम् । सर्वरत्नमयं ह्यासीत्तृतीयं पीठमूर्जितम् ॥१५॥
आदि सब साज-बाज थे ॥१६२।। प्रत्येक गोपुर द्वारपर चामर, तालवृन्त, दर्पण, ध्वजा, और छत्रोंके साथ प्रकाशमान सुप्रतिष्ठिक, श्रृंगार और कलश ये अष्ट मंगलद्रव्य शोभित हो रहे थे ॥१६३||
उक्त तीनों ही शालोंके द्वारोंपर गदा आदिको हाथोंमें लिये हुए व्यन्तर, भवनवासी और कल्पवासी देव क्रमसे द्वारपाल बनकर खड़े हुए थे ॥१६४॥ वहाँपर उक्त स्वच्छ स्फटिक मणिमयी शालसे लेकर पीठ-पर्यन्त लम्बी, चारों महावीथियोंके अन्तरालके आश्रित सोलह भित्तियाँ थीं ॥१६५।।
उन स्फटिकमणिमयी भित्तियोंके शिखरपर रत्नमयी स्तम्भोंसे उठाया हुआ, निर्मल रत्न-निर्मित, उत्तुंग श्रीमण्डप था ।।१६६॥ यह सत्यार्थमें श्रीमण्डप ही था, क्योंकि यह तीन जगत्की सर्वोत्कृष्ट श्री (लक्ष्मी) से भरपूर था और जहाँपर आकर भव्यजीव अर्हन्तदेवकी दिव्यध्वनिसे स्वर्ग और मोक्षकी श्रीको प्राप्त करते थे ।।१६७। उस श्रीमण्डपके मध्यमें ऊँची प्रथम पीठिका अति शोभित हो रही थी, जो कि वैडूर्यरत्नोंसे निर्माण की गयी थी और अपने तेजसे सर्व दिशाओंके मुखोंको व्याप्त कर रही थी ॥१६॥
उस प्रथम पीठिकाके सर्व ओर सोलह अन्तराल-युक्त सोलह सोपानमार्ग थे। जिनमें से चार सोपानमार्ग तो चारों दिशाओंमें थे और बारह सोपानमार्ग बारह कोठोंके प्रवेशद्वारोंकी ओर फैले हुए थे ॥१६९।।
इस प्रथम पीठिकाको आठों मंगलद्रव्य अलंकृत कर रहे थे और यक्षदेव अपने मस्तकोंपर धर्मचक्रोंको धारण किये हुए खड़े थे। वे धर्मचक्र एक-एक हजार आरेवाले थे और ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो अपनी किरणरूप वचन-समूहसे जगत्के सज्जनोंको धर्मका स्वरूप ही कह रहे हों, अथवा जिनदेवके आश्रयसे हँस ही रहे हों ॥१७०-१७१॥
इस प्रथम पीठके ऊपर हिरण्यमयी अति उन्नत द्वितीय पीठ था, जो अपनी कान्तिसे चन्द्रमण्डलको जीत रहा था ॥१७२॥ इस दूसरे पीठके उपरितलपर चक्र, गजराज, वृषभ, कमल, दिव्यांशुक, सिंह, गरुड़ और मालाकी आठ मनोहर ऊँची ध्वजाएँ आठों दिशाओंमें शोभायमान हो रही थीं, जो अपने प्रदीप आकारोंसे सिद्धोंके आठ गुणोंके सदृश प्रतीत हो रही थीं ॥१७३-१७४।। इस द्वितीय पीठके ऊपर अपनी स्फुरायमान रत्नकिरणोंके द्वारा
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