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१४४ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[ १४.१४९अथोल्लध्य प्रतोली तां परितः परिवीथ्यभूत् । नानाप्रासादपक्तिभिर्निर्मिता देवशिल्पिभिः ।।१४९॥ हिरण्मयमहास्तम्मा वज्राधिष्टानबन्धिताः । चन्द्रकान्तशिला दिव्यमित्तयो मणिचित्रिताः ॥१५॥ सहय॑द्वितलाः केचित्केचिज्ञ त्रिचतुस्तलाः । चन्द्रशालयुताः केचिद्वलभिच्छन्दशोभिताः ॥१५१॥ प्रासादा भान्ति ते तुङ्गाः स्वतेजोम्बुधिमध्यगाः । दीप्रा उत्तङ्गकूटा]ोत्स्नया निर्मिता इव ॥१५२॥ कूटागारसभागेहप्रेक्षशाला बभुः क्वचित् । शय्यासनयुतास्तुङ्गाः सोपानाः श्वेतिताम्बराः ॥१५३।। सगन्धर्वाः सुरा व्यन्तरा ज्योतिकाः खगेश्वराः । पन्नगाः किन्नरैः साध रमन्ते तेष चान्वहम् ॥१५४॥ केचित्तद्गीतगानैश्च केचिरादित्रवादनैः । नृत्तधर्मादिगोष्ठीभिर्जिनमाराधयन्ति ते ॥१५५॥ पद्मरागमयास्तुङ्गाश्चिताः स्तूपा नवोद्ययुः । वीथीनां मध्यभूभागे सिद्धार्हत्प्रतिमानजः ॥१५६॥ स्तूपानामन्तरेष्वेषां मणितोरणमालिकाः । विचित्रितनभोमागा भान्तीवेन्द्रधनुर्निभाः ॥१७॥ द्विधाच्चौधैर्ध्वजच्छत्रसर्वमङ्गलसंपदा । धर्ममूर्तय एवैव राजन्ते ते स्वतेजसा ॥१५॥ तत्रामिषिच्य संपूज्य भव्यास्ता प्रतिमाः पराः । ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्तुत्वाऽर्जयन्ति सद्वृषम् ॥१५९॥ स्तूपहावलीरुद्धामुल्लङ्घ्य तां महों ततः । नभःस्फटिकशालोऽभूत्स्फुरज्ज्योत्स्नात्तदिक्तटः ॥१६०॥ विभ्र जन्तेऽस्य शालस्य दिव्यानि गोपुराणि च । पद्मरागमयान्युच्चैर्मव्यरागमयानि च ॥१६॥ अत्रापि पूर्ववद्ज्ञेया मङ्गलद्रव्यसंपदः । नेपथ्यतोरणाः सर्वे निधयो नर्तनादयः ॥१६२।।
इसके पश्चात् इस प्रतोलीको उल्लंघन करके उससे आगे सर्व ओर एक और वीथी थी जो देव-शिल्पियोंसे निर्मित नाना प्रकारके प्रासाद-( भवन )-पंक्तियोंसे शोभित हो रही थी ॥१४९|| उन प्रासादोंके सुवर्णमयी महास्तम्भ थे, उनका वज्रमय अधिष्ठान बन्धन था, चन्द्रकान्तमणिमयी शिलावाली उनकी दिव्य भित्तियाँ थीं और वे नाना प्रकारकी मणियोंसे जड़ी हुई थीं ॥१५०।। उस प्रासाद-पंक्तिमें कितने ही भवन दो खण्डवाले, कितने ही तीन खण्डवाले और कितने चार खण्डवाले थे। कितने ही चन्द्रशाला (छत ) से युक्त थे और कितने ही वलभी (छज्जा और गेलेरी) से शोभित थे||१५|| देदीप्यमान, ऊँचे कूटानोंसे शोभित, अपने तेजकान्तिरूपी समुद्र के मध्य में अवस्थित वे प्रासाद ऐसे शोभा दे रहे थे, मानो चन्द्रकी चन्द्रिकासे ही निर्मित हुए हों ।।१५२॥ वे प्रासाद कूटागार, सभागृह, प्रेक्षणशाला, शय्या और आसनोंसे युक्त एवं उत्तुंग थे। उनके सोपान अपनी धवलिमासे आकाशको धवलित कर रहे थे ॥१५३।। उनमें गन्धर्व, व्यन्तर, ज्योतिष्क और पन्नगदेव, तथा विद्याधर किन्नरोंके साथ सदा क्रीड़ा कर रहे थे ॥१५४॥ उनमें से कितने ही गीत-गायनोंसे, कितने ही वादित्र बजानेसे, कितने ही नृत्योंसे और कितने ही धर्मगोष्ठी आदिके द्वारा जिनभगवान्की आराधना कर रहे थे ॥१५५।। उन वीथियोंके मध्य भूभागमें पद्मराग मणिमयी, नौ ऊँचे स्तूप थे जो सिद्ध और अरहन्तदेवकी प्रतिमाओंके समूहसे युक्त थे ॥१५६।। इन स्तूपोंके अन्तरालमें नभोभागको चित्र-विचित्रित करनेवाली मणिमयी तोरणमालिकाएँ इन्द्रधनुषके समान शोभित हो रही थीं ॥१५७।। वे अर्हन्त-सिद्धोंकी प्रतिमासमूहसे, ध्वजा-छत्रादि सर्व सम्पदासे और अपने तेजसे धर्ममूर्तियोंके समान शोभायमान हो रही थीं ॥१५८॥ वहाँपर जाकर भव्य जीव उन उत्तम प्रतिमाओंका अभिषेक कर, पूजन कर, प्रदक्षिणा देकर और स्तुति करके उत्तम धर्मका उपार्जन कर रहे थे ॥१५९।। इस स्तूप और प्रासादोंकी पंक्तिसे व्याप्त वीथीवाली भूमिका उल्लंघन कर उससे कुछ आगे अपनी स्फुरायमान शुभ्र ज्योत्स्नासे दिग्भागको आलोकित करनेवाला, आकाशके समान स्वच्छ स्फटिकमणिमयी एक शाल (प्राकार ) था। इस शालके पद्मरागमणिमयी, ऊँचे दिव्य गोपुरद्वार शोभित हो रहे थे, जो ऐसे प्रतीत होते थे, मानो भव्य जीवोंका धर्मानुराग ही एकत्रित हो गया है ।।१६०-१६१।। यहाँपर भी पूर्व के समान ही मंगलद्रव्यसम्पदा, आभूषणयुक्त तोरण, नवों निधियाँ और गीत-वादित्र-नर्तन
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