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१३.११५ ]
त्रयोदशोऽधिकारः
जृम्भिक ग्राम त्राह्यस्थे मनोहरवनान्तरे । ऋजुकूलानदीतीरे महारत्नशिलातले ॥१००॥ प्रतिमायोगमाधायाधोभागे शालभूरुहः । व्यधाद् ध्यानं हृदा षष्ठोपवासी ज्ञानसिद्धये ॥ १०१ ॥ अष्टादशसहस्त्रौघशीलसन्नाहवर्मितः । भूषितो द्विद्विचत्वारिंशल्लक्षगुणभूषणैः ॥१०१॥ महाव्रताद्यनुप्रेक्षा भावनांशुक्रमण्डितः । संवेगेन्द्र मारूढश्चारित्ररणभूस्थितः ॥ ३०३ ॥ रत्नत्रय महाबाणतपश्चापकराङ्कितः । ज्ञानदृक्कृतसंधानो गुप्त्यादिसैन्यवेष्टितः ॥ १०४ ॥ इत्याद्यपरसामग्र्यालङ्कृतोऽयं महाभटः । कर्मारातीन् बहून् रौद्रानुद्ययौ हन्तुमञ्जसा ॥१०५॥ तत्रादौ कर्महन्तॄणां सिद्धानां निष्कलात्मनाम् । इत्यष्टौ तद्गुणान् ध्यायेत्तद्गुणार्थी शिवाप्तये ॥ १०६ ॥ सम्यक्त्वं क्षायिकं ज्ञानं दर्शनं केवलं परम् । अनन्तं च महद्वीयं सूक्ष्मत्वं ह्यवगाहनम् ॥१०७॥ ततोऽगुरुलघुत्वं तथान्पाबाधगुणोत्तमम् । इत्यत्राष्टौ गुणा ध्येया नित्यं सिद्ध गुणार्थिभिः ॥ १०८ ॥ पुनर्निर्मलचितेन सदाज्ञाविचयादिकान् । धर्मध्यानान्महोत्कृष्टान् ध्यातुमारब्धवान् सुधीः ॥ १०९ ॥ आद्याः कषाय चत्वारो मिथ्यात्व प्रकृतित्रयम्। तिर्यगायुश्च देवायुर्नरकायुरमी दश ॥ ११० ॥ कर्मारयोऽस्य भीत्याश्वयत्त्रान्नाशमगुः स्वयम् । तिष्ठतो हि चतुर्थाद्यप्रमत्तान्वगुणे क्वचित् ॥ १११ ॥ तस्मालब्धजयो देवो बृहत्कर्मारिघातनात् । भटोत्तम इवात्यन्तं शुक्लध्यानमहायुधः ॥ ११२ ॥ तं सत्क्षपकश्रेणी निःश्रेणीं मुक्तिधामनि । आरुरोह महावीरः कर्मारिहननोद्यतः ॥११३॥ स्त्यानगृद्ध्याख्यदुष्कर्मनिद्रानिद्राविधिस्ततः । प्रचलाप्रचला श्वभ्रगतिस्तिर्यग्गगतिस्तथा ॥ ११४ ॥ एकाक्षद्वित्रितुर्येन्द्रियचतुर्जातयोऽशुभाः । श्वभ्रतिर्यग्गगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यं तथातपः ॥ ११५ ॥
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छद्मस्थभावके साथ क्रमसे बारह वर्ष बिताकर जृम्भिका ग्रामके बाहर स्थित मनोहर वनके मध्य में ऋजुकूलानदीके किनारे महारत्नशिलातलपर शालवृक्षके नीचे प्रतिमायोगको धारण कर, बेलाका नियम लेकर ज्ञानकी सिद्धिके लिए ध्यानावस्थित हुए ।। ९९ १०१ ।। उस समय अट्ठारह हजार शीलोंके समूहरूप कवचको धारण कर, चौरासी लाख उत्तम सद्-गुणरूप भूषणों से भूषित होकर, महात्रतादि अनुप्रेक्षाभावनारूप वस्त्रसे मण्डित होकर, संवेगरूपी गजेन्द्र पर आरूढ़ होकर, चारित्ररूपी रणभूमिमें अवस्थित होकर, रत्नत्रयरूप महाबाणों को और परूप धनुषको हाथ में लेकर, ज्ञान-दर्शनके द्वारा सन्धानको साधकर, गुप्ति आदि सेनासे वेष्टित होकर, इसी प्रकारकी अन्य सर्व सामग्रीसे अलंकृत हो वे महासुभट महावीर प्रभु अति रौद्रकर्म-शत्रुओं को शीघ्र विनाश करनेके लिए उद्यत हुए । १०२ - १०५ ।। उस समय उन्होंने सर्वप्रथम मोक्षप्राप्तिके लिए सिद्धोंके गुणोंके इच्छुक होकर कर्म-शत्रुओंके हनन करनेवाले निष्कल परमात्मा सिद्धोंके क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त महावीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाध इन आठ उत्तम महागुणों का ध्यान करना प्रारम्भ किया। जो जीव सिद्धोंके उक्त गुणोंको प्राप्त करनेके इच्छुक हैं, उन्हें नित्य ही उक्त गुणोंका ध्यान करना चाहिए ||१०६ - १०८ || पुनः महाबुद्धिशाली महावीरने निर्मल चित्तसे आज्ञाविचय आदि परम उत्कृष्ट धर्मध्यानके भेदोंका चिन्तन करना प्रारम्भ किया ।। १०९ ।। उस समय उनके आद्य अनन्तानुबन्धी चार कषाय, दर्शन मोहनीयकी मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियाँ, तिर्यगायु, देवायु और नरकायु ये दश प्रकृतिरूप कर्मशत्रु डर करके ही मानो बिना प्रयत्नके स्वयं ही शीघ्र विनाशको प्राप्त हो गये । जब कि वीरजिन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थानमें विराजमान थे ॥११०-१११॥ उक्त दश कर्मप्रकृतियोंके जीतनेसे विजयको प्राप्त वे महावीर भगवान् उत्तम सुभटके समान अत्यन्त पवित्र शुक्लध्यानरूप महान् आयुधको धारण कर शेष कर्मशत्रुओंको हनन करनेके लिए उद्यत होते हुए मोक्ष - महल में पहुँचनेके लिए नसैनी स्वरूप क्षपकश्रेणीपर शीघ्र चढ़े ॥११२-११३ || क्षपकश्रेणीपर चढ़ते ही वीरजिनने स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला