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१३० श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१३.८६स्वैनःकर्मोदयं ज्ञात्वा सा तत्रैव महासती । जपन्ती सन्नमस्कारान् धर्मध्यानपराभवत् ॥८६॥ वनेचरपतिः कश्चित्तामालोक्य धनेच्छया । नीत्वा वृषमसेनस्य समर्पयद्वणिकपतेः ॥८॥ श्रेधिभार्या समद्राख्या दष्टा तद पसंपदः । भविता मे सपत्नीयमिति शङ्कां व्यधाद हृदि ॥४८॥
सा पुराणं कोद्रवोदनम् । आरनालेन सम्मिश्रं शरावे निहितं सदा ।।८९॥ ददती चन्दनायाश्च शृङ्खलाबन्धनं व्यधात् । तत्रापि सा सती दक्षा नात्यजद्धर्मभावनाम् ॥१०॥ अन्येधुर्वत्सदेशेऽत्र तकौशाम्बीपुरं परम् । कायस्थित्यै महावीरः प्राविशद्रागद्रगः ॥११॥ पात्रोत्तमं तमालोक्य विच्छिन्न बन्धनाभवत् । तदानाय तदा प्रत्युवजन्ती चन्दना शुमात् ॥१२॥ ततो नीलालिमाकेशभारम्भूषणाङ्किता । गत्वा सा विधिना नत्वा प्रतिजग्राह सन्मतिम् ॥१३॥ शीलमाहात्म्यतस्तस्या अभवत्कोद्वोदनम् । शाल्यन्नं तच्छरावं च पृथुकाञ्चनभाजनम् ॥१४॥ अहो पुण्यविधिः पुंसां विश्वानघटितानपि । घटयत्येव दूरस्थान मनोऽभीष्टान्न संशयः ॥१५॥ ततोऽस्मै परया भक्त्या तदमदानमूर्जितम् । नवप्रकारपुण्याच्या ददौ सा विधिना मुदा ॥१६॥ तत्क्षणार्जितपुण्येन सा चापाश्चर्यपञ्चकम् । संयोगं बन्धुभिः साधं दानास्कि नाप्यतेऽत्र मोः ॥१७॥ जगद्वयापि यशस्तस्या अभवच्छशिनिर्मलम् । इष्टबन्ध्वादिवस्तूनां सङ्गमोऽभूत्सुदानतः ॥२८॥
अथासौ भगवान् वर्धमानोऽपि विहरन्महीम् । छद्मस्थेन क्रमान्मौनी नीरवा द्वादशवत्सरान् ॥९९।। कोई कामातुर और पाप-परायण विद्याधर किसी उपायसे उसे शीघ्र ले उड़ा और आकाश मार्गसे जाते हुए उसने अपनी भार्याके भयसे पीछे किसी महाअटवीमें उसे छोड़ दिया ॥८४-८५।। तब वह महासती अपने पापकर्मोदयको जानकर पंचनमस्कार मन्त्रको जपती हुई उसी अटवीमें धर्मध्यानमें तत्पर होकर रहने लगी ॥८६॥ वहाँपर किसी भीलोंके राजाने उसे देखकर धन-प्राप्तिकी इच्छासे ले जाकर वृषभसेन नामके वैश्यपतिको सौंप दी ।।८७|| सभदा नामकी उस सेठकी स्त्री ने उसकी रूप-सम्पदाको देखकर 'यह मेरी सौत बनेगी' ऐसी शंकाको मनमें धारण किया ॥८८।। तब उसने उसके रूपसौन्दर्यकी हानिके लिए ( उसके केश मुँड़ा दिये और ) साँकलसे बाँधकर ( उसे एक कालकोठरीमें बन्द कर दिया।) तथा आरनाल ( कांजी ) से मिश्रित कोदोंका भात मिट्टीके सिकोरेमें रखकर उसे नित्य खानेको देने लगी। ऐसी अवस्थामें भी उस सतीने अपनी धर्मभावनाको नहीं छोड़ा ॥८९-९०।।
किसी एक दिन उन महावीर प्रभुने रागसे रहित होकर शरीर-स्थितिके लिए वत्सदेशकी इस कौशाम्बीपुरीमें प्रवेश किया ॥९१।। उन उत्तमपात्र महावीर प्रभुको देखकर चन्दनाके भाव दान देनेके हुए। पुण्योदयसे उसके बन्धन तत्काल टूट गये। सिर काले भौंरोंके समान केशभारसे, और शरीर माला-आभूषणोंसे युक्त हो गया। तब उसने सामने जाकर और उन्हें नमस्कार कर सन्मति प्रभुको पडिगाह लिया ।।९२-९३॥ उसके शीलके माहात्म्यसे कोदोंका भात शालि चावलोंका हो गया और वह मिट्टीका सिकोरा विशाल सुवर्णपात्र बन गया ॥९४|| आचार्य कहते हैं कि अहो, यह पुण्य कर्म पुरुषोंको समस्त अघटित और दूरवर्ती भी अभीष्ट मनोरथोंको स्वयमेव घटित कर देता है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥९५।। तब उस चन्दना सतीने परम भक्तिके साथ नव प्रकारके पुण्योंसे युक्त होकर अर्थात् नवधा भक्तिपूर्वक विधिसे हर्षित होते हुए श्री महावीर प्रभुको वह उत्तम अन्नदान दिया ॥९६।। इस महान दानके प्रभावसे उसी समय उपार्जित पुण्यके द्वारा वह पंचाश्चर्योंको प्राप्त हुई
और तभी बन्धुओंके साथ उसका संयोग भी हो गया। अहो, पुण्यसे क्या नहीं प्राप्त होता है ॥९७॥ उस चन्दनाका सुदानके प्रभावसे चन्द्रमाके समान निर्मल यश जगत्में व्याप्त हो गया और इष्ट बन्धुजनों और इष्ट वस्तुओंका भी संगम हो गया ॥९८॥
अथानन्तर वर्धमान भगवान् भी महीतलपर विहार करते हुए मौन धारण कर
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