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एकादशोऽधिकारः
एको यः कुरुते पापं स्वस्य दुर्गतिकारणम् । निन्यैः सावयहिंसाद्यैः स्वपरीवारवृद्धये ॥३८॥ तत्फलेन स एवान्न प्राप्य श्वभ्रादिदुर्गतीः । भुनक्ति परमं दुःखं तेनामा न जनोऽपरः ॥३९॥ उपायको महत्पुण्यं जिनेन्द्रादिविभूतिदम् । दृक्तपोज्ञानवृत्ताद्यैस्तद्विपाकेन धीधनः ॥ ४० ॥ भुक्के व्यक्तोपमं सौख्यं स्वर्गादिगतौ महत् । आसाद्य महतीर्मूतीर्नापरः कोऽपि तत्समः ॥४१॥ एको हत्वा स्वकर्मास्तपोरत्नत्रयादिभिः । अनन्तसुखसंपनं याति मोक्षं भवातिगः ॥ ४२ ॥ इत्येकत्वं परिज्ञाय सर्वत्र स्वस्य धीधनाः । एकं चिदात्मकं नित्यं ध्यायन्तु तत्पदातये ॥४३॥ ( एकत्वानुप्रेक्षा 8 ) अन्यस्त्वं स्वात्मनो विद्धि जन्ममृत्यादिषु स्फुटम् । स्वाङ्गकर्म सुखादिभ्यो निश्वयाद्वाखिलाङ्गिनाम् ॥ ४४ ॥ अन्या माता पिताप्यन्योऽन्येऽनो सर्वेऽपि बान्धवाः । स्त्रीपुत्राद्याश्च जायन्ते कर्मपाकाज्जगत्त्रये ॥ ४५ ॥ सहजं वपुरात्मीयं पृथग्यत्र विलोक्यते । साक्षान्मृत्यादिके तत्र किं स्वकीयं गृहादिकम् ॥ ४६ ॥ आत्मनः स्यात्पृथग्भूतं मनः पुद्गलकर्मजम् । संकल्पजालपूर्ण च निश्चयेन वचो द्विधा ||४७ || कर्माणि कर्मकार्याणि सुखदुःखान्यनेकशः । जीवाच्चान्यस्वरूपाणि भवन्ति परमार्थतः ॥ ४८ ॥ इन्द्रियैः पदार्थादीन् जीवो जानाति तत्त्वतः । तेऽपि ज्ञानात्मनो भिन्ना विज्ञेयाः पुद्गलोद्भवाः ॥४९॥ रागद्वेषादयो भावा वर्तन्ते येऽस्य तन्मयाः । तेऽपि कर्मकराः कर्मभवा जीवमया न च ॥५०॥
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क्षणभर भी रक्षा करनेके लिए कभी समर्थ नहीं हैं ||३७|| यह अकेला प्राणी अपने परिवारकी वृद्धि के लिए निन्द्य सावद्य हिंसादि पापकार्योंके द्वारा अपनी दुर्गतिके कारणभूत जिस पापकर्मका उपार्जन करता है, उसके फलसे वह यहाँपर ही अनेक प्रकारके दुःखोंको पाकर परभव में नरकादि दुर्गतियोंके महादुःखोंको भोगता है, उसके साथ दूसरा कोई जन उस दुःखको नहीं भोगता है ।। ३८-३९ || कोई एक बुद्धिमान् मनुष्य सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि द्वारा तीर्थंकरादिकी विभूति देनेवाला महान पुण्य उपार्जन करके उसके परिपाकसे स्वर्ग आदि सुगतियों में भारी विभूति पाकर अनुपम सुखको भोगता है, उसके समान दूसरा कोई महान पुरुष नहीं है ||४०-४१ || यह अकेला ही जीव तपश्चरण और रत्नत्रय धारणादिके द्वारा अपने कर्म-शत्रुओं का नाश कर और संसारके पार जाकर अनन्त सुखसम्पन्न मोक्षको प्राप्त करता है || ४२ || इस प्रकार संसार में सर्वत्र जीवको अकेला जानकर हे बुद्धिशालियो, आप लोग उस शिवपदके पानेके लिए नित्य हो अपने एक चैतन्यस्वरूपात्मक आत्माका ध्यान करें ||४३||
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( एकत्वानुप्रेक्षा ४)
हे आत्मन, तुम अपनी आत्माको जन्म-मरणादिमें स्पष्टतः सर्व प्राणियोंसे अन्य समझो, और निश्चयसे अपने शरीर, कर्म और कर्म - जनित सुख-दुःखादिसे भी भिन्न समझो ॥ ४४ ॥ इस त्रिभुवन में माता अन्य है, पिता भी अन्य है और ये सभी बन्धुजन अन्य हैं । किन्तु कर्मके विपाकसे ये स्त्री-पुत्र आदि के सम्बन्ध होते रहते हैं ||१५|| मरणके समय जन्मकालसे साथ आया हुआ अपना यह शरीर ही जब साक्षात् पृथक् दिखाई देता है, तब स्पष्ट रूपसे भिन्न दिखनेवाले घर आदिक क्या अपने हो सकते हैं ? कभी नहीं || ४६ || पौद्गलिक कर्मसे उत्पन्न हुआ यह द्रव्य मन और अनेक प्रकारके संकल्प-विकल्प जालसे परिपूर्ण यह तेरा भावमन, तथा द्रव्यवचन और भाववचन भी निश्चयसे तेरी आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । इसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म और कर्मोंके कार्य ये अनेक प्रकारके सुख-दुःखादि भी परमार्थतः जीवसे भिन्न स्वरूपवाले हैं ||४७-४८।। यह जीव जिन इन्द्रियोंके द्वारा इन बाह्य पदार्थों को जानता है, वे इन्द्रियाँ भी पुद्गल कर्मसे उत्पन्न हुई हैं, अतः इन्हें भी अपने ज्ञान स्वरूपसे भिन्न जानना चाहिए || ४९ || जीवके भीतर जो राग-द्वेषादि भाव हो रहे हैं और
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