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१०४ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[११.२६द्रव्यादिभ्रमणः पञ्चप्रकारां च भवाटवीम् । दुःखव्याघ्रादिसंसेच्या भीमा खतस्करैर्भृताम् ॥२६॥ सर्वेऽङ्गिनश्चिरं प्रेमभ्रमन्ति गलके धृताः । कर्मारिभिभ्रंमिष्यन्ति हेति रत्नत्रयाहते ॥२७॥ न गृहीता न मुक्ता ये पुद्गलाः खाङ्ग-कर्मभिः । न स्युस्तेऽय भवानन्तान भ्रमद्भिर्विश्व-जन्तुभिः ॥२८॥ विद्यते स प्रदेशो न यत्रोत्पमा मृता न च । सर्वेऽङ्गिनोभ्रमन्तोऽसंख्यप्रदेशेऽखिलेऽत्र खे ॥२९॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो स्त्येकः समयोऽत्र सः। यत्र जाता व्ययं प्राप्ता बहुशो नाखिलाङ्गिनः ॥३०॥ चतुर्गतिषु सा योनिन स्याद्या कृत्स्नदेहिभिः । न नीता नोज्झिता मुक्त्वा विमानानि चतुर्दश ॥३१॥ मिथ्यादिप्रत्ययैः सप्तपञ्चाशत्संख्यकैः खलैः । दुष्कर्माण्यनिशं जीवा भ्रमन्तोऽत्रार्जयत्यहो ॥३२॥ इत्यनासाद्य यं धर्म भ्रमन्यत्र सदाशिनः । भवघ्नं बहुयत्नेन भवभीता भजन्तु तम् ॥३३॥ धर्मेणानन्तशर्माढयं निर्वाणं दुःखदूरगम् । यत्नादनत्रयेणाशु शर्मकामाः श्रयन्त्वहो ॥३४॥
(संसारानुप्रेक्षा ३) एकाकी जायते प्राणी ह्येको याति यमान्तिकम् । एको भ्रमेद्भवारण्यं चैको भुङ्केऽसुखं महत् ॥३५॥ एको रोगादिभिस्तो लभते तीव्र वेदनाम् । तदंशं नैव गृह्णन्ति पश्यन्तः स्वजनाः क्वचित् ॥३६॥
यमेन नीयमानोऽङ्गी कुर्वन्नाकन्दमुल्वणम् । एकाकी शक्यते त्रातुं क्षणं जातु न बन्धुभिः ॥३७॥ उपार्जन करनेसे भारी दुःख मानते हैं ॥२५|| दुःखरूपी व्याघ्रादिसे सेवित, भयानक और इन्द्रियविषयरूप चौरोंसे भरी हुई द्रव्य, क्षेत्रादिरूप पाँच प्रकारकी संसाररूप गहन अटवीमें सभी प्राणी रत्नत्रयधर्मके बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भावरूप पंच प्रकारके परावर्तनोंके द्वारा कर्मशत्रुओंसे गला पकड़े हुएके समान भूतकालमें घूमे हैं, वर्तमानकालमें घूम रहे हैं
और भविष्यकालमें घूमेंगे ।।२६-२७।। इस संसार में अनन्त भवोंके भीतर परिभ्रमण करते हुए सभी प्राणियोंने अपनी इन्द्रियों और कर्मों के रूपसे जिन पुद्गल परमाणुओंको ग्रहण न किया हो और छोड़ा न हो, ऐसा कोई पुद्गल परमाणु नहीं है । अर्थात् सभी पुद्गल परमाणुओंको अनन्त बार शरीर और कर्मरूपसे ग्रहण करके छोड़ा है। यह द्रव्यपरिवर्तन है ।।२८।। इस असंख्यप्रदेशी लोकाकाशमें ऐसा एक भी प्रदेश शेष नहीं है. जहाँपर परिभ्रमण करते हए सभी प्राणियोंने जन्म और मरण न किया हो। यह क्षेत्रपरिवर्तन है ॥२९|| उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालका ऐसा एक भी समय नहीं बचा है, जिसमें सभी प्राणियोंने अनन्त बार जन्म न लिया हो और मरणको न प्राप्त हुए हों। यह कालपरिवर्तन है।॥३०॥ देवलोकके नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर इन चौदह विमानोंको छोड़कर शेष चारों गतियोंमें ऐसी एक भी योनि शेष नहीं है, जिसे कि समस्त प्राणियोंने अनन्त बार ग्रहण न किया हो और छोड़ा न हो। यह भवपरिवर्तन है ।।३१।। अहो, ये संसारी जीव मिथ्यात्व, कषायादि सत्तावन प्रत्ययरूप दुष्टोंके द्वारा परिभ्रमण करते हुए निरन्तर दुष्कर्मोका उपार्जन करते रहते हैं। यह भावपरिवर्तन है ॥३२॥ इस प्रकार जिस सद्-धर्मको नहीं प्राप्त कर प्राणी इस संसारमें सदा भ्रमण करते रहते हैं, उस संसार-नाशक सद्-धर्मको भव-भयभीत पुरुष बहुयत्न के साथ सेवन करें ।।३३।। सुखके इच्छुक हे भव्यजनो, दुःखोंसे रहित और अनन्त सुखोंसे परिपूर्ण शिवपदको शीघ्र पानेके लिए रत्नत्रयरूप धर्मका आश्रय करो ॥३४॥
( संसारानुप्रेक्षा-३) संसारमें यह प्राणी अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही यमके समीप जाता है, अकेला ही भव-काननमें भ्रमण करता है और अकेला ही महादुःखको भोगता है ॥३५।। जब रोगादिसे पीड़ित यह प्राणी तीव्र वेदनाको पाता है, उस समय देखते हुए भी स्वजन-बन्धुगण कहीं भी उस वेदनाका अंशमात्र भी हिस्सा नहीं बाँट सकते हैं ॥३६।। यमके द्वारा ले जाया हुआ यह अकेला प्राणी जब अत्यन्त करुण विलाप करता जाता है, उस समय बन्धुजन एक
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