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(३)
कर्ममीमांसा
भापाटीकासहित वहां तक कर्म बन्ध नहीं रुकता, बन्धक्षय बिना जन्मान्तर नहीं रुकता, इसी प्रकार भवपरम्परा चलती ही रहती है।
यहां एक प्रश्न पैदा होता है कि क्या भिन्न २ समय में भिन्न २ कर्मों का बन्ध होता है ? या एक समय में सभी कर्मों का बन्ध हो जाता है ?
इस का उत्तर यह है कि सामान्यतया कर्मों का बन्ध इकठ्ठा ही होता है, परन्तु बन्ध होने के पश्चान सातों या आठों कर्मों को उमी में से हिस्सा मिल जाता है। यहां खुराक तथा विप का दृशान्त लेना चाहिये । जिस प्रकार खुराक एक ही स्थान से समुच्चय ली जाती है, किन्तु उस का रस प्रत्येक इन्द्रिय को पहुंच जाता है और प्रत्येक इन्द्रिय अपनी २ शक्ति के अनुकूल उसे ग्रहण कर उस रूप से परिणमन करती है, उसमें अन्तर नहीं पड़ता। अथवा किसी को सर्प काटले तो वह क्रिया तो एक ही जगह होती है, किन्तु उस का प्रभाव विपरूपेण प्रत्येक इन्द्रिय को भिन्न २ प्रकार से समस्त शरीर में होता है, एवं कर्म बन्धते समय मुख्य उपयोग एक ही प्रकृति का होता है परन्तु उस का बंटवारा परस्पर अन्य सभी प्रकृतियों के सम्बन्ध को लेकर ही मिलता है।
जिस हिस्से में सर्पदंश होता है उस को यदि तुरन्त काट दिया जाय तो चढ़ता हुआ ज़हर रुक जाता है, एवं आम्रपनिराध करने से कमा का वंच पड़ता हुआ भो रुक जाता है। यथा अन्य किसी प्रयोग से चढ़ा हुआ विप औषधप्रयोग से वापिस उतार दिया जाता है तथैव यदि प्रकृति का रस मन्द कर दिया जाए तो उस का बल कम हो जाता है। मुख्यरूपेण एक प्रकृति बन्धती है, और इतर प्रकृतियां उस में से भाग लेती है, ऐसा उनका स्वभाव है।
प्रश्न-पत्रों में कमबन्ध करने के भिन्न २ कारण बताए हैं, वे कारण जब सेवन किए जाएं तभी उस प्रकृति का बन्ध होता है । जैसे कि ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों का बन्ध होता है । जब उन में से किसी का भी सेवन नहीं किया फिर उस का बन्ध कैसे हो सकता है ?
उत्तर-कमों का बन्ध तो होता ही रहता है । प्रत्येक समय में सात या आठ कर्म संसारी जीव बांधता ही रहता है । आयुष्कर्म जीवन भर में एक ही वार बांधा जाता है। शेष सात कम ममय २ में वन्धते ही रहते हैं और उन का बंटवारा भी होता ही रहता है, किन्तु कर्मबन्ध के जो मुख्य २ कारण बताए हैं उन के सेवन करने से ता अनुभागबन्ध अर्थात् फल में कटुता या मधुरता दीर्घकालिक स्थिति दोनों का बन्ध पड़ता है। यदि उन कारणों का सेवन न किया जाए तो रस में मन्दता रहती है और अल्पकालिक स्थिति होती है।
प्रश्न-कर्मवर्गणा के पुल क्या बन्ध होने से पूर्व ही पुण्यरूप तथा पापरूप में नियत होते हैं या अनियत ?
उत्तर-नहीं। कर्मवर्गणा के पुदल न कोई पुण्यरूप ही हैं और न पापरूप ही । किन्तु शुभ अध्यवसाय से खेंचे हुए कर्मपु दल अशुभ होते हुए भी शुभरूप में परिणमन हो जाते हैं, और अशुभ अध्यवसाय के द्वारा खेचे हुए कर्मपुद्गल शुभ होते हुए भी अशुभ बन जाते हैं । जैसे कि प्रसूता गी सूखे तृण खाती है और उस को पीयूपवन श्वेत तथा मधुर दुग्ध बना देती है। प्रत्युत उसी दग्ध
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