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(२) श्री विपाकसूत्र
[कर्ममीमांसा बनाने के लिये आगमकारों ने यथार्थ उदाहरण दे कर भव्य प्राणियों के हित के लिये प्रस्तुत सूत्र में बीस जनों के इतिहास प्रतिपादन किए हैं। जिस से पापों से निवृत्ति और धर्म में प्रवृत्ति मुमुक्षु जन कर सकें।
सदा स्मरणीय-जैनागमों में कृष्णपक्षी (अनेक पुद्गलपरावर्तन करने वाले) तथा अभव्य जीवों के इतिहास के लिये बिल्कुल स्थान नहीं है किन्तु सूत्रों में जहां कहीं भी इतिहास का उल्लेख मिलता है तो उन्हीं का मिलता है जो चरमशरीरी हों या जिन का संसार-भ्रमण अधिक से अधिक देश-ऊन-अर्द्ध-पुद्गलपरावर्तन शेप रह गया हो, इस से अधिक जिन की संसारयात्रा है, उन का वर्णन जैनागम में नहीं आता है । जिन का वर्णन आगम में आया है वह चाहे किसी भी गति में हो अवश्य तरणहार हैं । इस बात की पुष्टि के लिये भगवती सूत्र के १५वे शतक का गौशालक, तिलों के जीव, निरयावलिका सूत्र में कालीकुमार आदि दस भाई, विपाकसूत्र में दुःखविपाक के दस जीव इत्यादि आखीर में ये सभी मोक्षगामी हैं।
एक जन्म में उपार्जित किए हुए पापकम, रोग-शोक, छेदन-भेदन, मारणपीटन आदि दुःखपूर्ण दुर्गतिगर्त में जीव को धकेल देते हैं। यदि किसी पुण्ययोग से वह सुकुल में भी जन्म लेता है तो वहां पर भी वे ही पूर्वकृत दुष्कृत उसे पुनः पापकर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं, जिस से पुनः जीव दुःख के गर्त में गिर जाता है । इसी प्रकार दुःख परम्परा चलती ही रहती है।
कर्मों का स्वरूप-कम्मुणा उवाही जायइ-आचाराङ्ग अ० ३, उ० १ । अर्थात कर्मों से ही जन्म, मरण, वृद्धत्व, शारीरक दुःख, मानसिक दुःख,संयोग वियोग, भवभ्रमण आदि उपाधियां पैदा होती हैं।
किरइ जिएण हेऊहिं जेणं तो भण्णए कम्म अर्थात जो जीव से किसी हेतु द्वारा किया जाता है उसे कम कहते हैं।
जब घनघातिकर्मप्रहग्रस्त अात्मा में शुभ और अशुभ अव्यवसाय पैदा होते हैं, तब उन अध्यवसायों में चुम्बक की तरह एक अद्भूत आकर्षण शक्ति पैदा होती है । जैसे चुम्बक के आसपास पड़े हुए निश्चेष्ट लोहे के छोटे २ का आकर्षण से खींचे चले आते हैं और साथ चिपक जाते हैं, एवं राग द्वेषात्मक अध्यवसायों में जो कशिश है, वह भाव अास्रव है । उस कशिश से कर्मवर्गणा के पुद्गल खींचे चले आना वह द्रव्य आस्रव है । श्रात्मा और कर्मपुद्गलों का परस्पर क्षीरनीर भांति हिलमिल जाना बन्ध कहाता है।
जीव का कर्म के साथ संयोग होने को बन्ध और उसके वियोग होने को मोक्ष कहते हैं। बन्ध का अर्थ वास्तविक रीति से सम्बन्ध होना यहां अभीष्ट है । ज्यों त्या कल्पना से सम्बन्ध हाना नहीं समझ लेना चाहिए । आगे चलकर वह बन्ध चार भागों में विभक्त हो जाता है, जैसेकि-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन में से प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध मन, वाणी और काय के योग (परिस्पन्द-हरकत) से होता है । स्थिति और अनुभाव बन्ध कषाय से होता है। मन वाणी
और काय के व्यापार को योग कहते हैं । कार्मणवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों पर छा जाना, यह योग का कार्य है। उन कर्मवर्गणा के पुद्गलों का दीर्घकाल तक या अल्प काल तक ठहराना और उन में दुःख सुख देने का शक्ति पैदा करना, कटुक तथा मधुर, मन्दरम तथा तीत्र रस पैदा करना कपाय पर निर्भर है । जहां तक योग और कपाय दोनों का व्यापार चालू है,
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