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(४)
श्री विपाकसूत्र
किममीमांसा
को कृष्णसर्प विषैला बना देता है।
जैन सिद्धान्त मानता है कि वस्तु अनन्त पर्यायों का पिण्ड है । सहकारी साधनों को पाकर पर्याय बदलती है । कती शुभ से अशुभ रूप में तो कभी अशुभ से शुभ रूप में हालते बदलती ही रहती हैं, अर्थात् काल चक्र के साथ २ पर्याय चक्र भो घूमता रहता है । एवं कम पुद्गल भी सकर्मा आत्मा के शुभ अध्यवसाय को पाकर पुण्य तथा पाप रूप में परिणमन हो जाते हैं।
पुण्य पाप के रस में तरतमता-शुभ योग की तीव्रता के समय पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग-रस को मात्रा अधिक होती है और पार प्रकृतियों के अनुभाग की मात्रा हीन निष्पन्न होती है । इससे उलटा अशुभ योग की तीव्रता के समय पाप प्रकृतियों का अनुभागब. अधिक होता है
और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बन्ध न्यून होता। शुभयोग की तीव्रता में कपाय की मन्दता होती है और अशुभ योग की तीव्रता में कपाय की उत्कटता होती है, यह क्रम भी स्मरणीय है।
कर्मबन्ध पर अनादि और सादि का विचार-आठों ही कम किसी विवक्षित संसारी जीव में प्रवाह से अनादि हैं। पूर्व काल में ऐमा कोई समय नहीं था कि जिस समय किसी एक जीव में आठों कर्मों में से किसी एक कर्म की सत्ता नहीं थी। पीछे से वह कर्म स्पृष्ट तथा वद्ध हुआ हो। तो कहना पड़ेगा कि आठों कों की सत्ता अनादि से विद्यमान है ।
कर्म मादि भी है क्योंकि किसी विवक्षित समय का बन्धा हुआ कम अपनी स्थिति के मुताबिक आत्मप्रदेशों में ठहर कर और अपना फल देकर आत्मप्रदेशों से झड़ जाता है, परन्तु बीच २ में अन्य कर्मों का बन्ध भी चालू ही रहता है । वह बन्ध नहीं रुकता जब तक कि गुणस्थानों का आरोहण नहीं होता अर्थात् जब तक जीव अात्मविकास की ओर अग्रसर नहीं होता तब तक कर्म - प्रकृतियों का बन्ध चालू ही रहता है, रुकता नहीं । तीन कार्य समय २ में होते ही रहते हैं जैसेकि कर्मों का बन्ध, पूर्व कृत कर्मों का भोग और भुक्त कर्मो की निर्जरा।
अनेकान्त दृष्टि से कर्मविचार-प्रश्न-क्या कर्म आत्मा से भिन्न है ? या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो उस का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । यदि अभिन्न है तो कर्म ही आत्मा का अपर नाम है, जीव और ब्रह्म की तरह ? । उत्तर-अनेकान्तबादी इसका उत्तर एक ही वाक्य में देता है, जैसे कि आत्मा से कर्म कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं, अथवा भेदविशिष्ट अभेद या अभेदविशिष्ट भेद ऐसा भी कह सकते हैं। इस सूक्ष्म थ्योरी को समझने के लिए पहले स्थूल उदाहरण की आवश्यकता है । हम ने स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है । सूक्ष्म से अमूर्त की ओर जाना है, अतः पहले स्थूल उदाहरण के द्वारा इस विपय को समझिए । जैसे हमारा यह स्थूल शरीर भी श्रात्मा से कथंचित भिन्नाभिन्न है । यदि स्थूल शरीर को आत्मा से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो भिन्न शरीर जीवपरित्यक्त कलेवर की तरह सुख दुःख आदि नहीं वेद सकता, यदि स्थूल शरीर को सर्वथा अभिन्न माना जाए तो किसी की मृत्यु नहीं होनी चाहिए, अर्थात शरीर का तीन काल में भी वियोग नहीं होना चाहिये । जैसे द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि द्रव्य से द्रव्यत्व अभिन्न है । अतः स्याद्वादी का कहना है, कि सजीव स्थल शरीर आत्मा से कथंचित भिन्नाभिन्न है। उपरोक्त दोपापत्ति सर्वथा भिन्न या सर्व था अभिन्न मानने में है ।
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