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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सो नही बनता काहेते जो वेदांतशास्त्रमे प्रपंचका अत्यंताभाव अंगीकार कीया है तिसमे चित्सु. खाचार्यने इस अनुमान करके जगत्का अत्यंताभाव सिद्ध किया है. जैसे यह जो पट है सो इन तंतुवोंमे अत्यंताभाववाला है पटत्वजातिवाला होनेते, द्वितीयपटवत् इति. जैसे द्वितीयपट पटत्वजातिवाला है तथा इन तंतुवोंमे अत्यंताभावचालाभी है तैसे यह पटभी पटत्वजातिवाला होनेते इन तंतुवामें अत्यंताभाववालाभी बलातका. रसे स्वीकार करना परेगा. इसका महाविद्याऽनुमान कहते है. तिसका लक्षण यह है जो दृष्टांतमे और रीतीसे रहिता हुवा पक्षमें प्रकारांतरसें रहे सो महाविद्याअनुमान जानना. इसअनुमानसें इस जगतका अत्यंताभाव स्वीकार कीया है. तैसे इस ब्रह्ममै जगत्का लेशमात्रभी नही. एक श्रुतिने एसा कहा है अरु इस ब्रह्मसे भिन्न सर्व जगत् असत् नाम अत्यंताभाववाला जानना. इतना दूसरीश्रुतिनेभी प्रतिपादन करनेसे संसारका अत्यं. ताभावही है. यांते संसारकों सत्य न होनेते सत्य वस्तुके ज्ञानजन्य संस्कारका अभावही एक साधनका अत्यंताऽभाव होनेसे संसारसत्यताही सिद्ध होती है. For Private and Personal Use Only
SR No.020885
Book TitleVedant Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVigyananand Pandit
PublisherSarasvati Chapkhanu
Publication Year1837
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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